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________________ २४८ जैन दर्शन और विज्ञान वह था, अल्बर्ट आइन्स्टीन । आइन्स्टीन ने 'आपेक्षिकता का सिद्धांत' (Theory of Relativity) नामक एक निबन्ध लिखा, जिसमें लोरन्ट्ज द्वारा दिए गए गाणितिक समीकरणों के आधार पर नए तथ्यों की स्थापना की गई। सर्वप्रथम आइन्स्टीन ने 'ईथर' की कल्पना को तिलांजलि दी। 'आकाश' को एक निरपेक्ष गतिशून्य तत्त्व न मानकर आइन्स्टीन ने बताया कि किसी भी प्रकार के प्रयोग से यह जानना अशक्य है कि अमुक पदार्थ की गति निरपेक्षतया क्या है?' इससे यह निष्कर्ष निकला कि विश्व में कोई भी पदार्थ निरपेक्षतया स्थिर नहीं रह सकता। पदार्थों की गति और स्थिति आपेक्षिक है। इसको विशिष्ट आपेक्षिकता का सिद्धांत (Special Theory of Relativity) कहते हैं। उक्त सिद्धांत के स्थापन में आइन्स्टीन ने इस परिकल्पना का आधार लिया कि प्रकाश की गति सदा अचल रहती है। इसको आइन्स्टीन में व्यापक रूप दिया और बताया कि “एक रूप में गति करने वाले निकायों ने प्रकृति के सभी नियम समान रूप से लागू होते हैं।' इसके परिणामस्वरूप किसी पदार्थ की निरपेक्ष गति क्या है-यह प्रकाश की गति की सहायता से अथवा अन्य किसी भी तरीकों से जानना अशक्य हो जाता है। दूसरी और प्रकाश की गति को सदा एकरूप ओर अचल मानने से 'ईथर' का अस्तित्व स्वत: समाप्त हो जाता है; क्योंकि यदि ईथर अस्तित्व में होता, तो उसकी गति का प्रभाव अवश्य प्रकाश की गति पर पड़ना चाहिए था। दूसरा तथ्य जो सामने आया, वह यह था कि प्रकाश की गति का वेग उत्कृष्टतम वेग है। विश्व में इससे अधिक वेग किसी भी पदार्थ का होना संभव नहीं है। प्रकाश का वेग जैसा कि पहले बताया गया था, एक निश्चित और परिमित ‘अचर' है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी भी पदार्थ की स्थिति के निरीक्षण में लगने वाला काल चाहे कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो, एक सीमा से कम नहीं हो सकता। आपेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद : आकाश और काल आइन्स्टीन के 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' ने भौतिक विज्ञान में अनेक बृहत् परिवर्तन ला दिए। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन 'आकाश' और 'काल' की धारणा सम्बन्धी थे। सुप्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक मिन्काउस्की (Minkowski) ने 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' का गाणितिक प्रतिपादन जिस रूप में किया, उससे यह तथ्य निकला कि विश्व 'आकाश-काल की एक सम्मिलित चतुर्वैमितिक सतता' (Fourdimensional continum of space and time) के रूप में है। अधिकांश रूप में गणित के साथ सम्बन्धित होने से तथ्य के यद्यपि व्यावहारिक भाषा में समझना अत्यन्त कठिन है, फिर भी उदाहरणों के द्वारा इसका स्पष्टीकरण किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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