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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व - मीमांसा
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क्रमश: धन ईथर (पाजिटिव ईथर ) और ऋण ईथर ( नेगेटिव ईथर ) कह सकते हैं । ये दोनों तत्त्व-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित विश्व-सिद्धांत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । धर्मास्तिकाय वह तत्त्व है, जो लोक में सभी पदार्थों की सभी प्रकार की गति से असाधारण रूप में सहाय्य करता है। दूसरे शब्दों में वह का असाधारण माध्यम (मीडियम ) है । अधर्मास्तिकाय का लक्षण है - सब पदार्थों की स्थिति में- अगति में असाधारण रूप से सहाय्य करना । केवल 'ईथर' शब्द 'गति के माध्यम' के लिए प्रयुक्त होता है । गति और स्थिति को यदि हम अभिसमयानुसार 'धन' और 'ऋण' मान लें तो धर्मास्तिकाय को धन ईथर और अधर्मास्तिकाय को ऋण ईथर की संज्ञा दी जा सकती है ।
ये दोनों ईथर द्रव्य की दृष्टि से एक, अखण्ड और स्वतन्त्र वास्तविक द्रव्य हैं। क्षेत्र की दृष्टि से ये केवल लोकाकाश में व्याप्त हैं, अलोकाकाश में दोनों का ही अस्तित्व नहीं माना गया है; अत: जितनी लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या है, उतनी ही इनके प्रदेशों की संख्या है - अर्थात् 'असंख्यात' हैं । काल की दृष्टि से ये अनादि और अन्नत हैं अर्थात् शाश्वत हैं। स्वरूप की दृष्टि से ये अभौतिक हैं, अमूर्त हैं, अगतिशील हैं; चैतन्य - रहित हैं ।
आकाश द्रव्य का अस्तित्व अधिकांश दर्शन और विज्ञान निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं; जबकि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व केवल जैन दर्शन ही स्वीकार करता है। जैन आगमों में इनके लिए तर्क पर आधारित प्रमाण दिए गए हैं। कार्य-कारणवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए दो प्रकार के कारण आवश्यक हैं- उपादान और निमित्त । उपादान कारण वह है, जो स्वयं कार्यरूप में परिणत हो जाए। निमित्त कारण वह है, जो कार्य के निष्पन्न होने में सहायक हो । यदि किसी पदार्थ की गति होती है, तो उसमें उपादान कारण तो वह पदार्थ स्वयं है । किंतु निमित्त कारण क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए हमें कोई ऐसे पदार्थ की आवश्यकता हो जाती है, जिसकी सहायता पदार्थ की गति में अनिवार्य हो । यदि हवा आदि को निमित्त कारण माना जाए, तो यह एक नया प्रश्न उत्पन्न हो जाता है कि उनकी (हवा आदि की ) गति में कौनसा निमित्त कारण है? यदि इसी प्रकार किसी अन्य द्रव्य को निमित्त माना जाए, तो ऐसे कारणों की परम्परा चलती ही जाती है और 'अनवस्था दोष' ( Regresus ad infinitum) की उत्पत्ति हो जाती है, इसलिए ऐसे पदार्थ की आवश्यकता हो जाती है । जो स्वयं गतिमान् न हो ।
यदि पृथ्वी, जल आदि स्थिर द्रव्यों को निमित्त कारण के रूप में माना जाता है, तो भी यह युक्त नहीं होता है, क्योंकि ये पदार्थ समस्त लोकव्यापी नहीं हैं । यह आवश्यक है कि गति-माध्यम के रूप में जिस पदार्थ को माना जाता है, वह सर्वव्यापी
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