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जैन दर्शन और विज्ञान से आकाश अनादि और अनन्त है अर्थात् शाश्वत है। स्वरूप की दृष्टि से आकाश अमूर्त है-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से रहित है अर्थात् अभौतिक है-भौतिक अथवा जड़ (मैटर) द्रव्य से भिन्न है; चैतन्य-रहित होने से अजीव है; गति रहित होने से अगतिशील है।
समस्त आकाश-द्रव्य अन्य द्रव्यों के द्वारा अवगाहित नहीं है; अत: एक होने पर भी, अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण वह दो भागों में विभाजित हो जाता
१. लोकाकाश। २. अलोकाकाश।
आकाश का वह भाग, जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इन पांच द्रव्यों द्वारा अवगाहित है, वह लोकाकाश है। शेष भाग, जहां आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं होता, वह अलोकाकाश है। लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या असंख्यात है, अलोकाकाश के प्रदेशों की संख्या अनन्त है। लोकाकाश एक, अखण्ड सान्त और ससीम है। उसकी सीमा से परे अलोकाकाश एक ओर अखण्ड है तथा असीम-अनन्त तक फैला हुआ है। ससीम लोक चारों ओर से अनन्त अलोक से घिरा हुआ है।
अर्थात् अलोक एक विशाल गोले के समान है, जिसकी त्रिज्या अनन्त है। इस कथन से यही अर्थ निकलता है कि धर्म, अधर्म आदि पांच द्रव्यों को धारण करने वाला यह विश्व (लोकाकाश) अनन्त आकाश-समुद्र में एक द्वीप के समान है। यहां पर यह बात ध्यान में रखनी आवश्यक है कि आकाश-लोक और अलोक-एक ओर अखण्ड द्रव्य है। अन्य द्रव्यों के अस्तित्व तर्क के आधार पर निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है-लोकाकाश अथवा सक्रिय विश्व के अस्तित्व के विषय में कोई संदेह नहीं करता, क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्षतया जाना जाता है और सबके द्वारा ग्राह्य है। किन्तु यदि लोकाकाश का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, तो अलोकाकाश का अस्तित्व स्वत: प्रमाणित हो जाता है, क्योंकि तर्कशास्त्र के अनुसार जिसका वाचक पद व्युत्पत्तिमान और शुद्ध होता है, वह पदार्थ सत् प्रतिपक्ष होता है। उदाहरणार्थ-जैसे अघट घट का प्रतिपक्ष है। घट' शब्द विधि-वाचक है; अघट निषेधवाचक है। इसी तरह अलोकाकाश लोकाकाश का निषेध-वाचक है-विपक्ष है; अत: अलोकाकाश का अस्तित्व लोकाकाश के साथ स्वीकृत हो जाता है। धन और ऋण ईथर
छ: द्रव्यों में से प्रथम दो द्रव्य धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को हम
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