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समय
६. जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन
विश्व-मीमांसा
जैन दर्शन का दृष्टिकोण द्रव्य-मीमांसा
जैन दर्शन में 'विश्व' के लिए 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'लोक' का व्युत्पत्तिजनक अर्थ है-जो देखा जाता है, वह लोक है। यह 'लोक' की केवल स्थूल परिभाषा है। लोक' की व्याख्यात्मक परिभाषा करते हुए कहा गया है : “ जिसमें छ: प्रकार के द्रव्य हैं, वह लोक है।'' इन छ: द्रव्यों के नाम इस प्रकार हैं :
१. धर्मास्तिकाय : गति-सहायक द्रव्य २. अधर्मास्तिकाय : स्थिति-सहायक द्रव्य ३. आकाशास्तिकाय : आश्रय देने वाला द्रव्य ४. काल ५. पुद्गलास्तिकाय : मूर्त जड़ पदार्थ (Matter) ६. जीवास्तिकाय : चैतन्यशील आत्मा (Soul)
इन छ: द्रव्यों की सह-अवस्थिति 'लोक' है। इस प्रकार की द्रव्य-मीमांसा जैन दर्शन की अपनी विशेषता है। छ: द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहे गये हैं। 'अस्तिकाय' का तात्पर्य है कि ये द्रव्य सप्रदेशी-सावयवी हैं। 'काल' द्रव्य के प्रदेश नहीं होते; अत: उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है। इस कारण से कहीं-कहीं लोक की चर्चा करते हुए लोक को 'पंचास्तिकायरूप' बताया गया है। संक्षेप में जिसको हम 'विश्व' (युनिवर्स) की संज्ञा देते हैं, वह 'लोक' है। आकाश : लोक और अलोक
ऊपर बताये गये छ: द्रव्यों में तीसरा द्रव्य आकाशास्तिकाय आकाश (स्पेस) का सूचक है। आकाशास्तिकाय को संक्षेप में आकाश भी कहा जा सकता है। इसकी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि “वह द्रव्य, जो अन्य सभी द्रव्यों को अवगाह अथवा आश्रय देता है, उसको 'आकाश' कहते हैं।"
आकाश वास्तविक द्रव्य है। द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है अर्थात् उसकी रचना में सातत्य है। क्षेत्र की दृष्टि से आकाश अनन्त और असीम माना गया है। यह सर्वव्यापी है और इनके प्रदेशों की संख्या अनन्त है। काल की दृष्टि
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