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जैन दर्शन और विज्ञान होते हैं उसी प्रकार एटम में इलेक्ट्रॉन बिखरे रहते हैं तथा प्रोटॉन तरबूज के गुद्दे की तरह होते हैं; लेकिन रदरफोर्ड ने थॉमसन के इस मॉडल को गलत साबित कर दिया तथा उसने सन् १९९१ में एक नया मॉडल प्रस्तुत किया। अपने प्रयोगों के आधार पर उसने यह सिद्ध किया कि एटम का पूरा धनात्मक आवेश एटम के नाभिक (केन्द्र) में स्थित होता है तथा ऋणात्मक आवेश उस नाभिक के चारों ओर समान रूप से वितरित होता है। एटम के नाभिक में न्यूट्रॉन भी स्थित रहते हैं। कुछ समय पश्चात् बोर (Bohr) नामक वैज्ञानिक ने रदरफोर्ड के मॉडल में संशोधन किया कि इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर समान रूप से व्यवस्थित नहीं होते, बल्कि वे अपनी निश्चित कक्षाओं में केन्द्र के चारों ओर परिभ्रमण करते रहते हैं। विभिन्न कक्षाओं में इलेक्ट्रॉन की एक निश्चित गतिज ऊर्जा होती है।
यदि तांबे के परमाणुओं को एक-के बाद-एक एक सीधी पंक्ति में रख दिया जाए तो एक इंच के लिए दस करोड़ परमाणुओं की आवश्यकता पड़ेगी।
_ वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि एक पिन के माथे पर दस करोड़ से भी अधिक परमाणु फैले होते हैं। अल्फा, बीटा तथा गामा का क्षय (रेडियोधर्मिता)
भारी एटम के नाभिक अस्थायी होते हैं। ऐसा पाया गया है कि इन नाभिकों में-से निरन्तर कुछ-न-कुछ तब तक क्षय होता रहता है, जब तक कि ये एक स्थिर/स्थायी नाभिक को प्राप्त नहीं कर लेते। इस क्षयीकरण को रडियोधर्मिता' के नाम से जाना जाता है। इस क्रिया के दौरान नाभिक में-से अल्फा, बीटा तथा गामा का उत्सर्जन होता रहता है। अल्फा कण दो प्रोटॉन के बराबर होते हैं। बीटा कण इलेक्ट्रॉन के बराबर होते हैं तथा गामा किरणें (ऊर्जा) के रूप में उत्सर्जित होते हैं। ये किरणें प्रकृति से विद्युत्-चुम्बकीय होती है। गामा किरणों में कोई द्रव्यमान नहीं होता, लेकिन कुछ निश्चित ऊर्जा उनमें अवश्य होती है।
इस क्षयीकरण की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत दिए गये । वैज्ञानिक गामा ने अल्फा-क्षय का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, अल्फा कण भारी एटम के नाभिक में पहले से ही स्थित रहते हैं। दूसरी ओर, फरमी नामक वैज्ञानिक ने बीटा कणों के क्षय का कारण बताने के लिए अपना सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार बीटा कण नाभिक में पहले से नहीं रहते बल्कि उनकी उत्पत्ति उत्सर्जन की क्रिया के समय ही होती है। जब नाभिक के अन्दर न्यूट्रॉन प्रोट्रॉन में अथवा प्रोट्रॉन न्यूट्रॉन में परिवर्तित होते हैं, तब क्रमश: ऋणात्मक बीटा कण (इलेक्ट्रॉन) तथा धनात्मक बीटा कण (पोजीट्रॉन) उत्पन्न होते हैं।
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