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________________ १८ जैन दर्शन और विज्ञान भी अनुचित नहीं है । इस प्रकार 'भौतिक विज्ञान के विश्व' को यदि एडिंग्टन ज्ञाता-सापेक्ष कहते है तो वह जैन दर्शन की दृष्टि से भी सही है । एडिंग्टन के दर्शन में 'भौतिक विश्व' और 'भौतिक विज्ञान के विश्व' के बीच के अन्तर के विषय में जो अस्पष्टता रही है, उसका एक कारण सम्भवतः यह भी हो सकता है-पदार्थ में रहे हुए स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुणों का ज्ञान स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय ध्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा ही मनुष्य करता है 1 प्रत्येक इन्द्रिय में अपने-अपने विषय को ग्रहण करने वाले संवेदनशील ज्ञान - तन्तुओं की विशिष्ट प्रकार की रचना होती है। इस प्रकार ऐन्द्रिय रचना और पदार्थ के गुणों जो प्राकृतिक सादृश्य है, उससे यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या स्पर्शनोन्द्रिय आदि की ऐन्द्रिय विशिष्टता मौलिक है और इनके निमित्त से ही पदार्थ स्पर्शादि गुण वाले बन जाते हैं अथवा पदार्थ स्वभावतया स्पर्शादि गुणों को धारण करने वाले हैं और स्पर्शनेन्द्रिय आदि की रचना स्वतन्त्र तथ्य है ? एडिंग्टन ज्ञाता की ऐन्द्रिय विशिष्टता को मौलिक मान कर ज्ञाता - सापेक्षवाद को स्थापित करते हैं, किन्तु वस्तुत: तो 'भौतिक विश्व' में स्पर्शादि गुण ही मौलिक और प्रधान है। भौतिक विज्ञान के विश्व' में ऐन्द्रिय रचना की विशिष्टता को प्रधान माना जा सकता है; फिर भी यह केवल ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र से संबन्धित तथ्य है। जहां तत्त्व-मीमांसा का प्रश्न है, वह तो ऐन्द्रिय रचना को एक स्वतंत्र तथ्य के रूप में ही मानना उपयुक्त होगा I एडिंग्टन के दर्शन का सबसे अधिक निर्बल पक्ष यह है कि जिस भौतिक विज्ञान पर वह आधारित है, वह भौतिक विज्ञान अब तक, 'भौतिक पदार्थ की चरम इकाई क्या है?' 'उसका तात्त्विक स्वरूप क्या है ? आदि प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहा है। जिन संज्ञाओं का प्रयोग भौतिक विज्ञान में किया जाता है, उन संज्ञाओं के तात्त्विक स्वरूप के विषय में वह कुछ भी नहीं बताता । उदाहरणार्थ- वर्ण को समझाने के लिए भौतिक विज्ञान में प्रकाश तरंगों के दैर्ध्य का विवेचन किया गया है; किन्तु प्रकाश स्वय क्या है-तरंग-रूप है या कण रूप? पदार्थ प्रकाश-तरंगों को किस कारण से शोषित करता है ? आदि प्रश्नों का समाधान भौतिक विज्ञान अब तक नहीं दे पाया है और तब तक नहीं दे पायेगा, जब तक कि भौतिक पदार्थ का चरम रूप स्पष्ट नहीं हो जाता। वर्तमान में इस विषय में अनेक प्रकार की उपधारणाएं और परिकल्पनाएं विज्ञान-जगत् में प्रचलित हैं । भौतिकवादी वैज्ञानिक जहां ऐसी परिकल्पनाओं के आधार पर वर्ण को वस्तु-सापेक्ष गुण के रूप में प्रतिपादित करते है, वहां एडिंग्टन का दर्शन ऐसी ही कोई परिकल्पना का आधार लेकर वर्ण को ज्ञाता - सापेक्ष गुण के रूप में निरूपित करता है। इस प्रकार का प्रतिपादन केवल आनुमानिक है, अनाधारित है और प्रत्यक्ष अनुभव का प्रतिरोधी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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