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दर्शन और विज्ञान जैन दर्शनकारों ने पुद्गल के चरम स्वरूप को अपने अतीन्द्रिय ज्ञान की सहायता से जाना है और इसके आधार पर ही परमाणुवाद का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। वर्ण आदि गुण वस्तुत: ही वस्तु-निष्ठ होते हैं, इत्यादि प्रतिपादनों का आधार उनके वस्तु-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान ही है। जैन दर्शन के अनुसार तो इस स्वरूप को ऐन्द्रिय ज्ञान के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता। अत: भौतिक विज्ञान केवल ऐन्द्रिय ज्ञान के आधार पर कभी भी इसको जानने में समर्थ नहीं बनेगा, ऐसा जैन दर्शन के आधार पर कहा जा सकता है :
एडिंग्टन के दर्शन की विविध दृष्टिकोणों के आलोक में समीक्षा करने का प्रयत्न हमने किया। विश्व के तत्त्व-मैमासिक पहलू की चर्चा एक स्वतन्त्र और अतिविस्तृत विषय है। यहां पर तो इसकी चर्चा गौण रूप में ही की गई है। इस चर्चा का उपसंहार इन छ: तथ्यों में किया जा सकता है।
१. ज्ञान-मैमासिक विश्लेषण के आधार पर एडिंग्टन ने चैतन्य तत्त्व का वस्तु-सापेक्ष वास्तविक अस्तित्व स्वीकार किया है। जैन दर्शन भी जीवस्तिकाय को स्वतन्त्र वास्तविक तत्त्व के रूप में स्वीकार करता है।
२. भौतिक विज्ञान के द्वारा इस वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता को जानना मनुष्य के लिए संभव नहीं है-यह एडिंग्टन का स्पष्ट अभिप्राय है। जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि आत्मा आदि अरूपी द्रव्य सकल ज्ञान (केवल ज्ञान) के विषय है; विकल ज्ञान (मति आदि चार) के द्वारा ये नहीं जाने जा सकते।
३. अनुभूति, स्मृति, कल्पना, संवेदना आदि चैतन्य तत्त्व के ही लक्षण है। एडिंग्टन के दर्शन की यह मान्यता जैन दर्शन को भी मान्य है।
४. एडिंग्टन अपने दर्शन को वर्तमान भौतिक विज्ञान द्वारा आधारित मानते हैं; अत: वे उसको वैज्ञानिक दर्शन' की संज्ञा देते है, किन्तु यह उपयुक्त नहीं लगता। वस्तुत: यह विचारधारा उनकी व्यक्तिगत रूढ़ मान्यताओं पर आधारित है; अत: इसको वैज्ञानिक दर्शन न मानकर 'एडिंग्टन का दर्शन' मानना ही अधिक उपयुक्त लगता
५. यद्यपि एडिंग्टन का दर्शन भौतिक जगत् का वास्तविक अस्तित्व स्वीकार करता है, फिर भी उसके स्वरूप के विषय में अस्पष्ट रहा है। अपने दर्शन को वे 'सीमित ज्ञाता-सापेक्षवाद' के रूप में प्रतिपादित करते हैं; इसका तात्पर्य यही लगता है कि भौतिक पदार्थ के अस्तित्व को तो वे वस्तु-सापेक्ष मानते है, किन्तु वर्ण, गन्ध आदि गुणों को ज्ञाता-सापेक्ष मानते हैं। इस विषय में जैन दर्शन भिन्न अभिमत रखता है। जैन दर्शन पुद्गलास्तिकाय को स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से युक्त वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में मानता है।
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