SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९५ विश्व का परिमाण और आयु क्या ये सिद्धान्त विश्व' के अस्तित्व मात्र को 'सादि' स्वीकार करते हैं, अथवा 'विश्व' की वर्तमान या विशेष अवस्था को? यदि वे केवल विश्व की वर्तमान या विशेष अवस्था का 'आरम्भ' स्वीकार करते हैं, तो यह स्वयं स्वीकृत हो जाता है कि विश्व का अस्तित्व तो अनादि है ही; केवल विश्व की अवस्था का परिवर्तन कोई निश्चित काल पूर्व हुआ था। ऐसी स्थिति में जैन दर्शन के साथ इन सिद्धान्तों का अधिक वैषम्य नहीं रह जाता। किन्तु यदि वे विश्व में अस्तित्व मात्र से ही आरम्भ का प्रतिपादन करते हैं, तो जैन दर्शन के अनुसार वह तर्क-संगत नहीं होता। एबे लेमैत्रे के सिद्धांत के विरोध में जैन दर्शन वही तर्क उपस्थित करता है कि जिस अद्भुत अणु में से विश्व का जन्म हुआ, उस अणु का अस्तित्व अनादि है या सादि? यदि उसको अनादि माना जाये, तो विश्व' भी अनादि हो जाता है। यदि उसको 'सादि' माना जाये, तो उसका उपादान कारण कुछ और मानना पड़ेगा। अब चूंकि असत् उपादान से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती; अत: उस अणु का उपादान कारण भी सत् होना चाहिए। इसको यदि सादि माना जाये तो उसी प्रकार उपादान कारणों की परम्परा चलने पर 'अनवस्था-दोष' उत्पन्न हो जाता है; अत: कहीं-न-कहीं 'अनादि उपादान' स्वीकार करना ही पड़ता है, जो विश्व को मूलत: अनादि बना देता सान्त विश्व-सिद्धान्त और जैन दृष्टिकोण विश्व के अस्तित्व का एक समय अंत आ जायेगा'-इस सिद्धांत का निरूपण मुख्यत: उष्णता-गति-विज्ञान के दूसरे नियम पर आधारित है। इस सिद्धांत के प्रतिपादन के विषय में निम्न छ: बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है: १. इस सिद्धान्त के अनुसार “विश्व-स्थित जड़ राशि (शक्ति रूप एवं द्रव्य रूप) शून्य आकाश में विलीन हो रही है।" इस निरूपण का अर्थ होता है कि विश्व की जड़-राशि का नाश हो रहा है, किन्तु 'द्रव्य और शक्ति की सुरक्षा के नियम' के अनुसार विश्व की जड़-राशि शाश्वत काल के लिए अचल रहती है। इस प्रकार उक्त सिद्धांत इस नियम के साथ असंगत है। 'द्रव्य और शक्ति की सुरक्षा का नियम' विज्ञान का मूलभूत आधार माना गया है। जैन दर्शन के परिणामी-नित्यत्व-वाद' के दृष्टिकोण से भी यह निरूपण सम्यग् नहीं लगता। २. दूसरी ध्यान देने योग्य बात है-इस विषय में सर जेम्स जीन्स का सुझाव । सर जेम्स जीन्स के अनुसार, 'यह सर्वथा कल्पनीय है कि विशेष प्रकार की आकाशीय स्थिति में उष्णता-गति-विज्ञान का यह (दूसरा) नियम सही न हो।" परिणामस्वरूप 'विश्व का अंत है' यह निरूपण गलत हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy