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________________ २९६ जैन दर्शन और विज्ञान इसी तथ्य का स्पष्ट निरूपण एडिंग्टन के शब्दों में इस प्रकार मिलता है : “वैज्ञानिक दर्शन में यह साधारणतया माना हुआ तथ्य है कि प्रकृति के नियमों द्वारा किसी शाश्वत सत्य का प्रतिपादन नहीं होता; केवल हमारे सीमित अनुभव में आने वाली प्रक्रियाओं के लिए उनका सत्य होना सम्भव है। इससे आगे ये सर्वदा और सर्वत्र सत्य है'-ऐसा विधान करने का हमें कोई अधिकार नहीं है।" ३. तीसरा महत्त्वपूर्ण तर्क उक्त सिद्धान्त के विरोध में यह है कि उष्णता-गति-विज्ञान का दूसरा नियम स्वयं कहां तक प्रमाणित है, यह चर्चास्पद विषय ४. इस सिद्धान्त की संदिग्धता का चौथा प्रमाण है-उष्णता गतिविज्ञान' के प्राचीन असापेक्षवादी (non-relativistic) निरूपण और नवीन सापेक्षवादी निरूपण का वैषम्य। ५. प्रस्तुत सिद्धान्त का ठोस विरोध विश्व के पुनर्निमाण की कल्पना पर आधारित 'चक्रीय-विश्व-सिद्धांत' ने किया है। ६. सान्त विश्व-सिद्धान्त वस्तुत: तो केवल इतना ही प्रतिपादन करता है कि एक निश्चित समय के बाद विश्व-स्थित अन्त्रोपी उत्कृष्टतम स्थिति को प्राप्त कर लेगी। किन्तु उस अवस्था में विश्व के 'अस्तित्व' का भी नाश हो जायेगा, यह किस प्रकार कहा जा सकता है? विश्व की उत्कृष्टतम अन्त्रोपी वाली दशा में भी न केवल विश्व का अस्तित्व बना रहेगा, किन्तु उसके पुनर्निर्माण की सम्भावना भी रह जायेगी। कुछ वैज्ञानिकों का यह प्रतिपादन कि उस स्थिति में काल स्वयं समाप्ति को प्राप्त होगा' गलत है। इसके अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान के प्राय: सभी सिद्धान्त-चक्रीय विश्व-सिद्धान्त, स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व-सिद्धान्त, स्थायी अवस्थावान् विश्व-सिद्धान्त, उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त-विश्व की काल विमिति को अनादि-अनन्त स्वीकार करते हैं; जैन दर्शन भी यही प्रतिपादन करता है। इस प्रकार ये सभी सिद्धान्त इस सिद्धान्त के विरोध में हैं। यदि उक्त सिद्धान्त को सही मान लिया जाये, तो भी वह 'विश्व की वर्तमान व्यवस्थित अवस्था का अंत आ जायेगा'-इस रूप तक ही सीमित रह जाता है। 'विश्व-अस्तित्व का अंत' या विश्व की काल-विमिति का अंत'-इस प्रकार का प्रतिपादन उक्त सिद्धान्त से फलित नहीं होता। निष्कर्ष का नवनीत १. वर्तमान में विज्ञान-जगत् में विश्व-सम्बन्धी एक भी ऐसा सिद्धान्त नहीं है जो निर्विवादतया सबके द्वारा स्वीकृत हो। जैन दर्शन एक सर्वांगीण और व्यवस्थित विश्व-सिद्धान्त इस प्रहेलिका के समाधान के रूप में प्रस्तुत करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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