________________
७. विश्व का परिमाण और आयु
जैन दर्शन का दृष्टिकोण
विश्व का आकार क्या है?
अनन्त-असीम आकाश के बहुमध्यभाग में स्थित सान्त - ससीम 'लोक' का निश्चित आकार माना गया है। जो धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का आकार है, वही लोक का आकार बन जाता है। दूसरे शब्दों में जिस आकार से धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाश में स्थित हैं, उसी आकार से 'लोक' स्थित है ।
सुप्रतिष्ठक आकार का अर्थ है - त्रिशरावसम्पुटाकार। एक शिकोरा (शराव ) उल्टा, उस पर एक शिकोरा सीधा, फिर उस पर एक उल्टा रखने से जो आकार बनता है, उसे त्रिशरावसम्पुटाकार कहते हैं । इस प्रकार से बने आकार में नीचे चौड़ाई अधिक और मध्य में कम होती है । पुनः ऊपर चौड़ाई अधिक होती है और अन्त में पुनः कम हो जाती है । अन्यत्र समग्र लोक का आकार पुरुष - संस्थान भी बतलाया गया है। दोनों हाथ कटि तट पर रख कर जैसे कोई पुरुष वैशाख संस्थान की तरह (पैर चौड़े रखकर ) खड़ा हो, वैसा ही सर्वथा यह लोक है । इस प्रकार विविध उपमाओं के द्वारा लोक का आकार स्पष्ट किया गया है। लोक के 'आयतन' का विवेचन गाणितिक होने से लोक का आकार कहां किस प्रकार है, इसकी स्पष्ट कल्पना गाणितिक विवेचन के द्वारा हो सकती है ।
विश्व कितना बड़ा है
लोकाकाश शान्त और ससीम है; अत: उसका निश्चित 'आयतन' माना गया है । इसके गणितीय विवेचन के अतिरिक्त इसको भी उपमा के द्वारा समझाया गया है।
11
यह लोक कितना बड़ा है ?" गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा—“गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा हैं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊर्ध्व और अधो दिशाओं में असंख्यात योजन का लम्बा-चौड़ा कहा गया है ।"
गणितीय विवेचन
लोक के आकार और आयतन के विषय में जैन साहित्य में विस्तृत गाणितिक विवेचन मिलता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर - परंपरा में यह विवेचन भिन्न-भिन्न रूप में मिलता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org