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जैन दर्शन और विज्ञान है। आकाश-काल और विश्व की गति-स्थिति-सम्बन्धी समस्याओं को हल करने वाले जैन दर्शन के सिद्धान्त वस्तुत: ही आज के वैज्ञनिकों के सामने एक सम्यक् दार्शनिक प्रणाली उपस्थित करते हैं। यह सही अर्थ में अस्तित्व का दर्शन है। जैन दर्शन में निरूपित सिद्धान्त का स्रोत तर्क नहीं अपितु अन्त:-अनुभूति या विशिष्ट आत्म-ज्ञान है, जिसमें तत्त्व से प्रत्यक्ष सम्पर्क बनता है। तर्क तो इन सिद्धान्तों की एक कसौटी मात्र बन सकती है। वास्तविकता' के पीछे रहे क्यों' को हम सम्भवत: न तो तर्क के सहारे जान सकते हैं और न भौतिक साधन-प्रसाधन तथा ऐन्द्रिय ज्ञान की सहायता से जान सकते हैं। प्रो. मार्गेनौ ने वास्तविकता के स्वरूप नामक पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में लिखा है-“यह निश्चित है कि वास्तविकता का कोई भी कारण (भौतिक अर्थ में) हो नहीं सकता।........ऐसे बिन्दु पर जाते ही वैज्ञानिक छुट्टी ले लेता है और अस्तित्व का दर्शनिक सूत्रधार बन जाता है।"
अभ्यास १. जैन दर्शन की द्रव्य-मीमांसा में वर्णित गति-माध्यम एवं स्थिति-माध्यम के
स्वरूप को विस्तार से बताते हुए उनकी वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षा करें। २. जैन दर्शन के आकाश द्रव्य को समझाइए। उसकी तार्किक आधारों पर
मीमांसा करें। ३. जैन दर्शन में काल को क्या माना गया है? इस विषय में क्या मतभेद है?
एतद्विषयक वैज्ञानिक अवधारणा के साथ जैन दर्शन की तुलना करें। ४. आइंस्टीन से पूर्व विज्ञान के क्षेत्र में आकाश और काल की क्या अवधारणाएं
थी?
५. आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा आकाश और काल के स्वरूप को किस रूप
में प्रस्तुत किया गया है? ६. आपेक्षिकता के सिद्धान्त के दार्शनिक प्रतिपादन की विस्तृत चर्चा करें। ७. जैन दर्शन एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त की आकाश सम्बन्धी अवधारणाओं
की तुलना करें।
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