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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा
२६३ उक्त उदाहरण से काल की विमिति के संकुचन को समझा जा सकता है, किन्तु इसके दार्शनिक पक्ष में उलझन पैदा हो जाती है। मनुष्य की प्राकृतिक प्रक्रियाएं (जिसमें उसकी आयु भी है) क्या इस संकुचन से प्रभावित होती हैं। अर्थात् गति के प्रभाव से काल का जो संकुचन हुआ है, उसके अनुसार ही क्या मनुष्य की प्राकृतिक प्रक्रियाएं कार्य करती रहेंगी? इस प्रश्न के उत्तर में सम्भवत: वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। प्रो. मार्गेनौ इस विषय में यही अभिमत प्रकट करते हैं कि ये सभी संकुचन किसी भी अर्थ में वास्तविक ही हैं। जबकि एडिंग्टन के सामने जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या आकाश-काल के संकुचन वास्तविक हैं?' तब उसके उत्तर में उन्होंने कहा था-“हम बहुधा 'सत्य' और 'वास्तविक सत्य' के बीच में भेद करते हैं। उसी के आधार पर गतिमान निकाय का संकुचन भी 'सत्य' कहा जा सकता है, पर वास्तविक सत्य' नहीं कहा जा सकता।"
'आपेक्षिकता के सिद्धांत' में आकाश और काल की परस्परापेक्षता का जो निरूपण किया गया है, वह निर्विवाद है। इसका आधार प्रकाश-गति की सीमितता है। यह एक तथ्य है कि हमारी इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह गति से तेज चलने वाले किसी भी साधन की सहायता से नहीं हो सकता; अत: घटना और द्रष्टा की (आकाशीय) दूरी के ऊपर युगपत्ता की परिभाषा आधारित हो जाती है। अत: किसी भी घटना के पूर्ण विवेचन में आकाश और काल दोनों जुड़े हुए रहते हैं, यह सिद्धांत निर्विवाद रूप से मान्य हो जाता है, किन्तु प्रकाश-गति की सीमितता का क्षेत्र कहां तक है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है।
आपेक्षिकता के सिद्धान्त की सत्यता की कसौटी सम्भवत: तब हो सकेगी, जब स्थूल विश्व (मक्रोकोस्मोस) के नियमों की समीचीनता सूक्ष्म विश्व (माइक्रोकोस्मोस) में भी यथावत् सिद्ध हो जायेगी। अब तक सूक्ष्म विश्व विषयक विज्ञान की ज्ञानराशि अत्यधिक अल्प है, ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक नियमों की सत्यता के विषय में अन्तिम रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं माना जा सकता। उपसंहार
समग्र विवेचन के निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि प्रथम तो आपेक्षिकता का सिद्धान्त आकाश और काल-सम्बन्धी जिन धारणाओं को उपस्थित करता है, उनकी सत्यता असंदिग्ध नहीं है और दूसरा इसका दार्शनिक प्रतिपादन सर्वसम्मत नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा किया गया प्रतिपादन सम्भवत: ईश्वरवादी दार्शनिक विचारधारा से प्रभावित है तथा स्पष्ट और तर्कसंगत भी नहीं
१. देखें, दी नेचर ऑफ फिजिकल रियलिटी, पृ० १४९ ।
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