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जैन दर्शन और विज्ञान आकाश और धारणात्मक (कन्सेप्चुअल) आकाश कहा जाता है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित आकाशास्तिकाय को रसल के शब्दों में 'धारणात्मक आकाश' कहा जाता है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित आकाशास्तिकाय को रसल के शब्दो में 'धारणात्मक आकाश' कहा जा सकता है, जबकि वैज्ञानिकों का सम्बन्ध केवल अनुभव-ग्राह्य आकाश के साथ रहता है, किन्तु धारणात्मक आकाश का अस्तित्व स्वीकार किये बिना आश्रय-आश्रित सम्बन्ध की पहेली सुलझ नहीं सकती।
___ इस प्रकार उक्त विवेचन के निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित आकाशास्तिकाय का सिद्धांत न केवल आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा अखण्डित है, अपितु तर्क-सम्मत भी है।
आपेक्षिकता के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम है-आकाश-काल की विमितियों में संकुचन। लोरेन्ट्ज द्वारा दिये गये समीकरणों से पता चल जाता है कि किसी भी पदार्थ की गति के साथ आकाश-काल की विमितियां संकुचित होती हैं। गतिमान पदार्थ की लम्बाई गति की दिशा में संकुचित हो जाती है-इसी को आकाशीय विमिति में संकुचन माना गया है। अब यदि इस संकुचन को वास्तविक आकाश का ही संकुचन मान लिया जाये, तो यह गलत होगा। क्योंकि यह संकुचन भौतिक पदार्थ की ही एक अवस्था परिवर्तन के फलस्वरूप है, न कि अभौतिक आकाश, जिसमें वह पदार्थ आश्रित है, के संकुचन के कारण।
___ काल-विमिति का संकुचन कुछ दुरूहता उत्पन्न कर देता है, इसको समझने के लिए एक सरल उदाहरण लिया जाये । एक तारा पृथ्वी से ४० प्रकाश वर्ष दूर है। अब यदि एक राकेट २४०००० किलोमीटर प्रति सैकिण्ड की गति से वहां जाता है, तो उसे वहां पहुंचने में कितना समय लगेगा? आपेक्षिकता के सिद्धान्त के अनुसार इसके दो उत्तर हैं : पृथ्वी-स्थित मनुष्य की अपेक्षा से तो तारे पर पहुंचने में
३००००० + ४०
२४०००० = ५० वर्ष लगेंगे। (क्योंकि प्रकाश की गति ३००००० कि.मी. प्रति सैकिण्ड है।) किन्तु जो मनुष्य उस राकेट में बैठे हुए हैं, उनके लिए फिटजगेराल्ड के संकुचन नियमों के अनुसार काल-विमिति में संकुचन हो जायेगा। यह संकुचन १० : ६ के अनुपात में होगा अर्थात् राकेट में बैठे हुए मनुष्य के लिए तारे तक पहुंचने में
५० +६
१० = ३० वर्ष लगेंगे।
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