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________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४३ की सूचक है, जिसमें पदार्थ का अस्तित्व बना रहता है, 'वर्तना' की तरह परिणमन' को भी 'काल' के बिना नहीं समझाया जा सकता। जब किसी पदार्थ में परिणमन होता है, तब स्वाभाविक रूप से उस परिवर्तन की कालावधि का सूचन हमें होता है। क्रिया' में गति आदि का समावेश होता है। 'गति' का अर्थ है-आकाश प्रदेशों में क्रमश: स्थान-परिवर्तन करना। अत: किसी भी पदार्थ की गति में स्थान-परिवर्तन का विचार उसमें लगने वाले काल के साथ किया जाता है। इसी प्रकार, अन्य क्रियाओं में भी समय का व्यय होता है। परत्व और अपरत्व अर्थात् 'पहले आना' और बाद में होना' अथवा 'पुराना' और 'नया'; ये विचार भी काल के बिना नहीं समझाये जा सकते। इस प्रकार व्यवहार में वर्तना आदि को समझने के लिए 'काल' को 'द्रव्य' माना गया है। व्यावहारिक काल गणनात्मक' है। काल के सूक्ष्मतम अंश समय से लेकर पुद्गल-परावर्तन तक के अनेक मान व्यावहारिक काल के ही भेद हैं। इनमें घड़ी, मुहर्त, अहोरात्र, मास, वर्ष आदि (अथवा सैकिण्ड, मिनिट, घण्टा आदि) के भेद भी समाविष्ट हैं। सूर्य-चन्द्र की गति के आधार से इनका माप किया जा सकता है। किन्तु जैन दर्शन के अनुसार विश्व के सब स्थानों में सूर्य-चन्द्र की गति नहीं होती है। एक मर्यादित क्षेत्र को छोड़कर शेष स्थानों में जहां ये आकाशीय पिण्ड अवस्थित हैं, वहां दिन, रात्रि आदि काल-मान नहीं होते। इसलिए यह माना गया है कि व्यावहारिक काल केवल समय-क्षेत्र' तक सीमित है। इस समय विवेचन का सारांश यह है कि काल स्वयं में कोई स्वतन्त्र 'वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता' नहीं है, किन्तु वस्तु-सापेक्ष वास्तविकताओं' का ही एक अंग-पर्याय है। कुछ अन्य आचार्यों की मान्यता के अनुसार नैश्चयिक काल वास्तविक द्रव्य है, जबकि व्यावहारिक काल नैश्चयिक काल की पर्याय-रूप है। दिगम्बर परम्परा में 'काल' के विषय में जो प्रतिपादन किया गया है, वह उक्त मन्तव्य से सर्वथा भिन्न प्रकार का है। दिगम्बर आचार्यों ने यद्यपि काल के दो भेद-नैश्चयिक और व्यावहारिक काल स्वीकार किए हैं, फिर भी इनकी परिभाषाएं भिन्न प्रकार से की हैं। सुप्रसिद्ध दिगम्बर आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती (ई. १०वीं शताब्दी) काल के विषय में लिखते हैं :" जो द्रव्यों के परिवर्तन-रूप, परिणाम-रूप देखा जाता है, वह तो व्यावहारिक काल है और वर्तना लक्षण' का धारक जो काल है, वह नैश्चियिक काल है। जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक-एक स्थित हैं, वे कालाणु है और असंख्यात द्रव्य हैं।" नैश्चयिक काल, जो कि कालाणुओं के रूप में है, वास्तविक द्रव्य है और संख्या की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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