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________________ २४२ जैन दर्शन और विज्ञान और जीव के स्कन्धों के परमाणु जितने काल्पनिक विभाग किए जाएं, तो आकाश के अनन्त और शेष तीनों के असंख्य होते हैं। ये विभाग 'प्रदेश' कहलाते हैं। इस प्रकार आकाश अनन्त प्रदेशात्मक और धर्म, अधर्म और एक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है। पुद्गल के परमाणु जब जुड़ते हैं, तब स्कन्धों का निर्माण होता है। दो परमाणुओं के मिलने से द्विप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध बनता है यावत् अनन्त परमाणुओं के जुड़ने से अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध बनता है। इस प्रकार 'काल' को छोड़ कर शेष पांचों ही द्रव्यों के प्रदेश' होते हैं। केवल काल अप्रदेशी है। काल का केवल वर्तमान समय ही अस्तित्व में होता है। भूत समय तो व्यतीत हो चुका है-नष्ट हो चुका है और अनागत (भविष्य) समय अनुत्पन्न है। वर्तमान समय 'एक' होता है, इसलिए इसका तिर्यक्-प्रचय नहीं होता, अर्थात् काल 'अस्तिकाय' नहीं है। काल की वास्तविकता के विषय में जैनाचार्यों में परस्पर मतभेद रहा है। श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्यों ने काल के दो भेद कर दिए हैं : व्यावहारिक काल और नैश्चयिक काल । नैश्चयिक काल अन्य द्रव्यों के परिवर्तन का हेतु है। जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों में प्रत्येक समय में जो परिणमन होता रहता है-पर्याय बदलती रहती है, वह नैश्चयिक काल के निमित्त से है। दूसरे शब्दों में, नैश्चयिक काल को जीव और अजीव की पर्याय कहा गया है। जो जिस द्रव्य की पर्याय है, वह उस द्रव्य के अन्तर्गत ही है; अत: जीव की पर्याय जीव है और अजीव की पर्याय अजीव । इस प्रकार नैश्चयिक काल जीव भी है और अजीब भी है। काल का निरूपण जब निश्चय नय की दृष्टि से होता है, तब वह 'नैश्चयिक काल' कहलाता है; अत: वास्तविक काल 'नैश्चयिक काल' ही माना गया है। दूसरी ओर काल का जब व्यवहार नय की दृष्टि से निरूपण होता है, तब वह 'व्यावहारिक काल' कहलाता है। व्यावहारिक काल को 'द्रव्य' कहा गया है। काल को व्यवहार-दृष्टि से 'द्रव्य मानने का कारण यह है कि काल के कुछ एक उपकार अथवा लक्षण व्यवहार में अत्यन्त उपयोगी है और जो उपकारक' होता है, उसको द्रव्य कहा जा सकता है। जिन उपकारों के कारण काल 'द्रव्य' की कोटि में गिना जाता है, वे मुख्यतया पांच हैं : वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व। 'वर्तना' का अर्थ है-वर्तमान रहना-किसी भी पदार्थ के वर्तमान रहने का अर्थ यही है कि उसका अस्तित्व कुछ ‘अवधि' तक होता है। यह 'अवधि' शब्द का का ही सूचक है। यद्यपि 'काल' किसी भी द्रव्य को अस्तित्व की अवस्थिति प्रदान नहीं करता, फिर भी जिस अवधि तक पदार्थ रहता है, वह काल के उन सब क्षणों १. तीनों विमिति में विस्तार होने से तिर्यक्-प्रचय' कहलाता है। केवल एक ही वैमितिक विस्तार 'ऊर्ध्व-प्रचय' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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