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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा
२४१ दोनों में है। जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य है अत: ये विभाजक तत्त्व के योग्य नहीं हैं। इस प्रकार छ: द्रव्यों में से केवल दो द्रव्य शेष रह जाते हैं, जो लोक-अलोक का विभाजन कर सकें। अत: धर्मास्तिकार्य और अधर्मास्तिकाय-ये दो द्रव्य आकाश का विभाजन करते हैं। जहां-जहां यह दो विद्यमान हैं, वहां-वहां जीव और पुद्गल गति करते हैं और स्थिर रहते हैं। जहां इनका अस्तित्व नहीं है, वहां किसी भी द्रव्य की गति और स्थिति सम्भव नहीं है। इस प्रकार लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन हो जाता है। इसलिए कहा गया है-“धर्म और अधर्म को लोक तथा अलोक का परिच्छेद मानना युक्तियुक्त है। यदि ऐसा न हो, तो उनके विभाग का आधार ही क्या बने।"
इस प्रकार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय गति-स्थिति-निमित्तक और लोक-अलोक-विभाजक द्रव्यों के रूप में स्वीकार किए गए हैं। उक्त समय विवेचन को संक्षिप्त में इस प्रकार कहा जा सकता है : धर्मास्तिकाय (धन ईथर), अधर्मास्तिकाय (ऋण ईथर), आकाश, काल, पुद्गलास्तिकाय, और जीवास्तिकाय-इन छ: द्रव्यों से बना हुआ यह लोक परिमित है। इस लोक से परे आकाश-द्रव्य का अनन्त समुद्र है, जिसमें ईथरों के अभाव के कारण कोई भी जड़ पदार्थ या जीव गति करने में या ठहरने में समर्थ नहीं है। काल द्रव्य
छ: द्रव्यों में काल-द्रव्य' एक ऐसा तत्त्व रहा है, जिसके स्वरूप के विषय में भी जैनाचार्य एकमत नहीं रहे हैं, जबकि आकाश, धर्म और अधर्म-इन तीन द्रव्यों के स्वरूप के विषय में विभिन्न जैनाचार्य प्राय: एक-मत हैं। 'काल' शब्द के विभिन्न अर्थ होते हैं, किन्तु जैन दर्शन की द्रव्य-मीमांसा में प्रयुक्त काल' शब्द का पर्यायवाची 'समय' है। वैसे 'समय' का पारिभाषिक अर्थ जैन दर्शन के अनुसार ‘काल का अविभाज्य अंश' है। किन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त 'समय' शब्द 'काल' का ही सूचक है। जहां द्रव्यों की गणना आई है, वहां काल को भी गिना गया है। जहां अस्तिकायों का वर्णन है, वहां काल को नहीं गिना गया। श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा इस विषय में तो एकमत है ही कि 'काल' अस्तिकाय नहीं है। 'अस्तिकाय' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है; 'जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म तथा आकाश-ये पांचों द्रव्य विद्यमान हैं। इसलिए इनको 'अस्ति' (है) ऐसा कहा गया है और ये 'काय' के समान बहु प्रदेशों को धारण करते हैं, इसलिए इनको 'काय' कहते हैं। 'अस्ति' तथा 'काय' दोनों को मिलाने से 'अस्तिकाय' होता है।'' अर्थात् ये पांच द्रव्य केवल अस्तित्ववान ही नहीं हैं या केवल प्रदेश-समूह ही नहीं है किन्तु दोनों में ही हैं; अत: ‘अस्तिकाय' संज्ञा से बताए गए हैं। इनके प्रदेशों के विद्यमानता के कारण ये तिर्यक-प्रचयस्कन्ध' के रूप में हैं और विस्तार इनका सहज गुण हो जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश
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