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जैन दर्शन और विज्ञान जरूरी है।
उपवास सहिष्णुता का बड़ा प्रयोग है। प्रतिदिन प्रात:काल भोजन की मांग कम हो जाती है। जो उपवास करते हैं, उनमें सहज ही सहिष्णुता का विकास होता है और संकल्पशक्ति का विकास होता है।
___ आयुर्वेद का विश्वास है कि सप्ताह में एक बार उपवास अवश्य होना चाहिए। आज हम उपवास के महत्त्व को भूल गए और पश्चिम के लोगों ने उपवास-चिकित्सा का प्रयोग कर रखा है। न जाने कितने वर्षों से चल रहा है। उपवास-चिकित्सा पर पश्चिम में जितनी अच्छी पुस्तकें निकली हैं शायद भारत में नहीं निकली। उपवास प्रयोग है, अगर प्रयोग की दृष्टि से किया जाए। उपवास प्रयोग तब बनता है, जब पहले दिन हल्का खाना खाया जाए और पारणा में हल्का खाया जाए। तीन दिन बराबर यह चले। पहले दिन हल्का भोजन, दूसरे दिन उपवास और तीसरे दिन फिर हल्का भोजन, तब उपवास वास्तव में प्रयोग बनता है।
भगवान महावीर कहते हैं-मृत्यु के समय तो तुम्हारा खाना छूटेगा ही, तब तुम दुःखी न होओ, इसीलिए पहले ही खाना छोड़ने का अभ्यास रखो। पहले ही बिना भोजन के आनन्द की अनुभूति का अभ्यास रखो। इसका अर्थ देह का दमन नहीं है। यह देह की संज्ञा से ऊपर उठने की बात है, आत्मानुभूति की बात है। जब व्यक्ति को देह और आत्मा की भिन्नता की अनुभूति हो जाती है, तो उसके लिए तपस्या दु:ख की हेतु नहीं रहती, सुख की हेतु तो खैर रहेगी ही कहां से? तब वह आनन्द की हेतु बन जाएगी। देह और आत्मा की भिन्नता की अनुभूति नहीं होती है, तब तक खाना छोड़ने में डर लगता है। पर सही अर्थ में देखा जाए तो मनुष्य को दुःख खाना छोड़ने में नहीं है, अपितु खाने में ही सुखा मान लेने की संज्ञा में है। इस मिथ्यात्व का परिशोधन करने के लिए महावीर अनशन-उपवास की बात कहते हैं।
उपवास कितना करना चाहिए, इसके विषय में वे कोई निश्चित मानदंड नहीं बताते हैं कि इतना उपवास करना पड़ेगा। जहां तक मन में आनन्द की अनुभूति हो, तब तक उपवास करो। जो उपवास आनन्द की अनुभूति नहीं कराता है, उसके लिए महावीर की अनुमति नहीं है। जो तपस्या देह और आत्मा की भिन्नता, पुद्गल-निरपेक्ष आनन्द का अनुभव नहीं करा सके, वह वास्तव में तपस्या कम, देह-दण्ड अधिक है।
साधना की बात बहुत सारे लोग आसन-प्राणायाम से शुरू करते हैं। महावीर उसे अनाहर (अनशन) से शुरू करते हैं। सम्भवत: इसका कारण यही रहा
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