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जैन दर्शन और विज्ञान किसी-न-किसी रूप में खतरनाक सिद्ध हुए हैं। अधिकांश ऐसे पदार्थों से व्यक्ति उनका व्यसनी बन जाता है, यानी कुछ दिनों के सेवन के बाद उनके शरीर का चयापचय-क्रम परिवर्तित हो जाता है और व्यसनी को उन पदार्थों के निरन्तर सेवन पर आश्रित होना पड़ता है। यदि उनका उपयोग अचानक बन्द कर दिया जाय, तो व्यसनी को काफी पीड़ा सहन करनी पड़ती है और कभी-कभी तो मृत्यु भी हो सकती है । यह पराश्रितता शारीरिक न भी हो, पर मानसिक रूप में अवश्य हो जाती है, जो नशीले पदार्थ को 'वैशाखी' का रूप देकर मनुष्य का पंगु बना देती है । बहुत सारे नशीले पदार्थ यकृत और मस्तिष्क जैसे प्राणाधार अवयवों को भारी क्षति पहुंचाते है ।
अफीम और मार्फिया जैसे स्वापक पदार्थ केन्दीय नाड़ी संस्थान के शामक होने का कारण पीड़ा आदि में राहत पहुंचाते हैं या चिंता की अनुभूति से व्यक्ति को मुक्त करते हैं। इससे सुखाभास या भ्रम भी पैदा होता है, किन्तु ये तीव्र दुर्व्यसन हैं और सदियों से गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं के उत्पादक रहे हैं। इन व्यसनों के शिकार व्यक्ति अपनी लत पूरी करने के लिए अपराध करने उतारू हो जाते हैं। उत्तेजक पदार्थ
चाय, काफी, कोको आदि अन्य पेय पदार्थों में विद्यमान केफीन और सिगरेट आदि तम्बाकू वाले पदार्थों में विद्यमान निकोटीन सामान्यतः प्रयुक्त उत्तेजक पदार्थ है। इन दोनों में (केफीन और निकोटीन में ) केन्द्रीय नाड़ी तंत्र को उत्तेजित करने की अद्भुत क्षमता है । किन्तु दूसरी ओर ये ही तत्त्व हृदय रोग को बढ़ाने में सहयोगी बनते हैं। अधिक मात्रा में केफीन का सेवन चिड़चिड़ापन तथा अनिद्रा की बीमारी को पैदा करता है । निकोटीन की अतिमात्रा फुफ्फुस से सम्बन्धित कैंसर आदि अनेक रोगों को जन्म देने के लिए कुख्यात है । शारीरिक दृष्टि से इनका व्यसन-स्वभाव विवादास्पद हो सकता है, किन्तु मानसिक दृष्टि से इनकी परावलम्बिता असंदिग्ध है ।
भांग, गांजा, सुल्फा, एल. एस. डी. आदि जिन्हें "साईकेडेलिक औषध' कहते हैं, शरीर में से प्राकृतिक रूप में श्रावित “नोरएपिनैफ्रीन" नामक उत्तेजक हार्मोन के स्राव में वृद्धि करके अपना प्रभाव डालते है । इनके सेवन करने वालों में कभी-कभी उत्तेजना इतनी अधिक हो जाती है कि व्यक्ति नींद नहीं ले सकता । सुखाभास जैसी स्थिति और गहरी निराशा की स्थिति एक के बाद एक होती रहती है । इन पदार्थों का दीर्घकालीन सेवन व्यक्ति को भ्रम या भ्रांति या उग्र व्यवहार तक पहुंचाता है । एल. एस. डी. का अणु रसायनिक दृष्टि से सेरोटोनीन नामक तंत्रिका-संचारी (न्यूरोन - ट्रान्समीटर) के साथ अदभुत सादृश्य रखता है, जिससे वह मस्तिष्कीय ' कोशिकाओं के कार्य कलापों में विक्षेप पैदा करता है। इससे पैदा होने वाले भ्रम
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