SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ जैन दर्शन और विज्ञान कार्य-कारण खोजो। वह एक स्थूल तथ्य है। व्यवहार के क्षेत्र में यह नियम लागू हो सकता है किन्तु सूक्ष्म जगत् में कार्य-कारण के सिद्धांत का कोई अर्थ नहीं है । सूक्ष्म जगत् में न कोई किसी का कारण होता है और न कोई किसी का कार्य । जीव और परमाणु का अपना अस्तित्व होता है और उनका कोई कारण नहीं होता। यदि परमाणु का कोई कारण माना जाए तो कारण की श्रृंखला अनन्त बन जायेगी। वह कहीं थमेगी ही नहीं। तर्कशास्त्र में इसे अनवस्था दोष कहा जाता है। जीव का कारण मानने पर भी कार्य-कारण की श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं होगा। प्रश्न निरपेक्ष सत्य का सत्य के दो प्रकार है-सापेक्ष सत्य और निरपेक्ष सत्य। कुछ दार्शनिकों ने कहा-जैन दर्शन में जितने सत्य हैं, वे सारे सापेक्ष हैं। कोई निरपेक्ष सत्य नहीं है। ईश्वरवादी ईश्वर को निरपेक्ष सत्य मानते हैं किन्तु जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य का कोई स्थान नहीं है। कपड़ा सत्य है किन्तु सापेक्ष सत्य है। अभी कपड़ा है और वह दस दिन में बदल जाएगा सब कुछ सापेक्ष। वस्तुत: निरपेक्ष सत्य क्या है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न रहा है यदि इस प्रश्न पर तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो जैन दर्शन के सामने यह कोई उलझन नहीं है। उसमें दोनों सत्य स्वीकार्य है। पञ्चास्तिकाय निरपेक्ष सत्य है वह किसी की अपेक्षा से नहीं है, किसी कारण से नहीं है। वह कारण और अपेक्षा से मुक्त एक अहेतुक सत्य है। उसके पीछे कोई अपेक्षा नहीं है, कोई हेतु नहीं है। वह अपने स्वभाव से सत्य है। अस्तित्व स्वाभाविक है, वहां कार्य-कारण का सिद्धांत समाप्त हो जाता है। अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य जैन दर्शन का एक सिद्धांत है-पारिणामिक भाव। उसे दो भागों में विभक्त किया गया-अनादि पारिणामिक और सादि पारिणामिक । जो मूल तत्त्व हैं, अस्तित्व हैं, वे अनादि पारणिामिक हैं। उनके परिणमन का आदि बिन्दु किसी को ज्ञात नहीं हैं अस्तित्व का निरन्तर परिणमन होता रहता है। अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता रहता है, उसका कोई आदि बिन्दु नहीं खोजा जा सकता। पंचास्तिकाय, काल, लोक-अलोक ये सब अनादि पारिणामिक है। दूसरा है सादि पारिणामिक । मकान बना। पहले मकान नहीं था, मकान बन गया-यह सादि परिणमन है। कपड़ा नहीं था, कपड़ा बन गया, यह सादि परिणमन है। मनुष्य नहीं था, मनुष्य बन गया-यह सादि परिणमन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy