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जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा
२२७ निराधार भ्रम
जितने सादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। जितने अनादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजने की कोई अपेक्षा नहीं होती। सादि परिणमन है सादि सत्य और अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य।
जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नहीं है' यह भ्रम निराधार है, अहेतुक है। जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य का स्पष्ट उद्घोष है। जितने मूल अस्तित्व हैं, अनादि परिणमन हैं, वे सब निरपेक्ष सत्य हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल-ये सब निरपेक्ष सत्य हैं। लोक और अलोक भी निरपेक्ष सत्य हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी सादि परिणमन हैं, वे सब सापेक्ष सत्य हैं। सापेक्ष सत्य में ही कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। कारण के तीन प्रकार
तर्कशास्त्र में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं-उपादान कारण, निमित्त कारण और निवर्तक कारण, सहयोगी या सहकारी कारण। घड़ा बनाया जाता है, उसका उपादान कारण है मिट्ठी। उसका निवर्तक कारण है कुम्हार । उसके बनाने में जिन उपकरणों का प्रयोग होता है, वे हैं निमित्त कारण। जितने सादि परिणमन हैं उनमें इन तीनों कारणों को खोजा जा सकता है किन्तु यह आवश्यक नही है कि तीनों कारण सर्वत्र उपलब्ध हों। उपादान कारण का होना अत्यन्त अनिवार्य है। सादि परिणमन और निमित्त भी अनिवार्य है। किन्तु निवर्तक सर्वत्र हो, यह आवश्यक नहीं है। घड़े और मकान के निर्माण में कर्ता की जरूरत होती है। आकाश में बादल बनते हैं। उनका कोई कर्ता नहीं है। यह स्वाभाविक परिणमन है। जहां स्वाभाविक परिणमन होता है, वहां कर्ता की जरूरत नहीं होती, दो कारण मिलकर कार्य की निष्पत्ति कर देते हैं। जो कार्य स्वाभाविक नहीं होते हैं, कृत होते हैं, उनमें तीनों कारण उपलब्ध होते हैं। सृष्टि के निर्माण का प्रश्न
कार्य और कारण की श्रृंखला पर अनेकांत दृष्टि से विचार आवश्यक है। अनेक दार्शनिक सर्वत्र कार्य-कारण की अनिवार्यता स्वीकार करते हैं। सृष्टि का प्रारम्भ ईश्वर से होता है ईश्वर कर्ता है और सृष्टि उसका कार्य है। इससे उपादान का प्रश्न और अधिक उलझ जाता है। ईश्वरवाद और कार्य-कारणवाद का भी परस्पर एक संबंध रहा है। कार्य-कारणवाद के आधार पर ईश्वर को स्वीकार किया जाता है। एक तर्क प्रस्तुत होता है-'घड़ा एक कार्य है तो उसका कर्ता भी होना
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