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________________ २२८ जैन दर्शन और विज्ञान चाहिए। अगर सृष्टि कार्य है तो उसका कर्ता भी होना चाहिए। और उसका जो कर्ता है, वही ईश्वर है। यह तर्क भी बहुत सुलझा हुआ नहीं है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रश्न उभर जाते हैं। ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है। उसने संकल्प से किया या उपादान से? अगर उपादान मौजूद थे और सृष्टि का निर्माण किया तो परमाणुओं के संघात से किया या ऐसे संकल्प से ही कर दिया? ईश्वर ने संकल्प किसा और सृष्टि बन गई। कामघट की कहानी विश्रुत है। चिन्तामणि व्यक्ति के पास है, संकल्प किया और सृष्टि तैयार हो गई, वस्तु तैयार हो गई। क्या संकल्प से सृष्टि का निर्माण हुआ या परमाणुओं के संघात से सृष्टि का निर्माण हुआ? यह दार्शनिक जगत् का बहुचर्चित प्रश्न हैं। उपादान मूल कारण है ___ यदि परमाणु आदि की सामग्री से सृष्टि का निर्माण हुआ है तो इसका अर्थ होगा ईश्वर भी अनादि है और परमाणु आदि का जगत् भी अनादि है। इस दृष्टि से सृष्टि का निर्माण कोई विशेष बात नहीं है। जैसे एक कुम्हार घड़ा बनाता है, एक शिल्पी मूर्ति का निर्माण करता है वैसे ही किसी ने सृष्टि का निर्माण कर दिया। इसे विलक्षण घटना नहीं माना जा सकता। प्रश्न है सामग्री का। सामग्री, उपादान मूल कारण है। उसे अनादि माने बिना कहीं व्यवस्था बैठती नहीं है। जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभ्युपगम है-प्रत्येक पदार्थ अनादि है। चेतन और अचेतन-दोनों अनादि है। कार्यकारण सर्वत्र मान्य नहीं जैन दर्शन की दूसरी महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है-जितने पदार्थ कल थे, उतने ही आज हैं, उतने ही आगे रहेंगे। एक भी परमाणु न कम होगा और न ज्यादा होगा। जितने थे, उतने हैं और उतने ही रहेंगे। यह त्रैकालिक व्यवस्था है। न किसी को बनाने की जरूरत और न किसी को नष्ट होने की अपेक्षा। न कोई बनता है और न कोई बिगड़ता है, केवल परिवर्तन होता है, परिणमन होता है, रूपांतरण होता है। सब अपने स्वरूप में हैं। इसी आधार पर अनेकांत के इस सिद्धांतनित्या-नित्यवाद का विकास हुआ। अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ नित्य है और दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अनित्य है। जैन दर्शन के अनुसार न किसी को नित्य कहा जा सकता है और न किसी को अनित्य कहा जा सकता है। अगर परमाणु नित्य है तो आत्मा भी नित्य है। यदि परमाणु अनित्य है तो आत्मा भी अनित्य है। अगर आत्मा मरता है तो परमाणु भी मरता है और परमाणु अमर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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