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जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल
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(रिअल) एवं अवास्तविक ( वर्चुअल ) प्रतिबिम्बों (इमेजों ) के रूप में लक्षित होती है । व्यक्तिकरण पट्टियों (इन्टरफेरेन्स बैंड्स) पर यदि गणनायंत्र ( काउंटिंग मशीन ) चलाया जाए तो कालीपट्टी (डार्क बैंड) में - से भी प्रकाश - वैद्युत रीति से (फोटो-इलेक्ट्रिकली) ऋणाणुओं (इलेक्ट्रोन्स) का नि:सरित होना सिद्ध होता है । तात्पर्य यह कि काली पट्टी केवल प्रकाश के अभावरूप नहीं, उसमें भी ऊर्जा होती है और इसी कारण उससे विद्युदणु निकलते हैं। काली पट्टियों के रूप में जो छाया होती है वह भी ऊर्जा का ही रूपान्तर है ।
वर्गीकरण - प्रकाश-पथ में दर्पणों (मिरर्स) और अणुवीक्षों (लेंसेस) का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण ही है। इस प्रकार के आवरण से वास्तविक और अवास्तविक प्रतिबिम्ब बनते हैं । ऐसे प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं, वर्णादि विकार परिणत और प्रतिबिम्बमात्रात्मक । वर्णादि विकार परिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिम्ब लिए जा सकते हैं, जो विपर्यस्त (इन्वर्टेड) हो जाते हैं और जिनका परिमाण ( साइज ) बदल जाता है। ये प्रतिबिम्ब प्रकाश - रश्मियों के वस्तुतः मिलन से बनते हैं और प्रकाश को ही पर्याय होने से स्पष्टतः पौद्गलिक हैं । प्रतिबिम्बमात्रात्मिका छाया के अन्तर्गत विज्ञान के अवास्तविक प्रतिबिम्ब ( वर्चुअल इमेजेज ) रखे जा सकते हैं, जिनमें केवल प्रतिबिंब ही रहता है, प्रकाश- रश्मियों के मिलने से ये प्रतिबिम्ब नहीं बनते ।
विद्युत् (बिजली) - विद्युत् को हम साधारणतः धन- विद्युत् और ऋण-विद्युत् दो रूपों में देखते हैं। ये दोनों ही पुद्गल-पर्याएं हैं और दोनों का वैज्ञानिक मूलाधार एक ही है ।
वैज्ञानिक दृष्टि से विद्युत् के दो रूप हैं- धन और ऋण । धन का आधार उद्युत्कण (प्रोटॉन) और ऋण का आधार विद्युत्कण (इलेक्ट्रान) है। इस सिद्धांत के अनुसार विश्व का प्रत्येक पदार्थ विद्युन्मय है ।
रेडियो- क्रियातत्त्व (रेडियो एक्टिविटी ) - ) - जब किसी परमाणु (एटम) से किसी कारणवश उसके मूलभूत कण, विद्युत्कण और उद्युत्कण, पृथक् होते हैं तब बम फटने की तरह धड़ाके की आवाज होती है, साथ ही उससे एक प्रकार की लौ निकलती है जो प्रकाश की तरह आगे-आगे बढती चली जाती है । इसी के प्रसारण को रेडियो-क्रियातत्त्व या किरण - प्रसारण (रेडिएशन) कहते हैं ।
आधुनिक विज्ञान के १०३ तत्त्व - वैज्ञानिकों ने पुद्गल की कुछ ऐसी पर्यायों का पता लगाया है, जो अपनी एक स्वतन्त्र जाति रखती हैं और जिनमें किसी अन्य जाति का मिश्रण स्वभावत: नहीं होता । ऐसी अमिश्रित जाति की पुद्गल - पर्यायों को ही विज्ञान में तत्त्व कहा जाता है।
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