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जैन दर्शन और विज्ञान ही पदार्थों का अस्तित्व वस्तु-सापेक्ष मानकर उनके इन्द्रियों पर पड़ने वाले प्रभाव को ही 'पदार्थत्व' कहते है। एडिंग्टन के दर्शन की अपेक्षा जीन्स का दर्शन प्राचीन पाश्चात्य दर्शनों से अधिक प्रभावित है। ऐसा लगता है कि जीन्स ने अपनी दर्शन में प्लुतो और बर्कले के दर्शन को ही एक नया रूप दिया है। प्लुतो के दर्शन की प्रमुख मान्यताएं जीन्स के दर्शन में भी मान्य रही हैं। जीन्स ने प्लुतो की तरह 'ईश्वर को विश्व-स्रष्टा के रूप में चित्रित करने का प्रयत्न किया है। विश्व 'गणितज्ञ विचारक' के विचारों से बना हुआ है-इस कथन का तात्पर्य सम्भवत: यही है कि जीन्स ईश्वर की कल्पना एक गणितज्ञ के रूप में करते हैं और विश्व को उसकी सृष्टि के रूप में प्रतिपादित करना चाहते हैं। प्लुतो के प्रत्ययों का सिद्धांत' थोड़े से भिन्न रूप में जीन्स के विचारों में प्रतिबिम्बित होता दिखाई देता है। पदार्थों के वास्तविक तत्त्व को जानने की मनुष्य की असमर्थता भी प्लुतो के परमार्थवाद का ही दूसरा रूप प्रतीत होता है। इसके साथ-साथ बर्कले के ज्ञाता-सापेक्षवाद की छाया जीन्स के दर्शन में स्पष्ट दिखाई देती है। वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता का अस्तित्व स्वीकार कर उन्हें शाश्वत आत्मा के मन में अस्तित्ववान् मानने का संकेत' बर्कले के ज्ञाता-सापेक्षवाद का समर्थन करता है।
इस प्रकार कुछ प्राचीन पाश्चात्य दार्शनिकों की विचारधारा को जीन्स ने अपने दर्शन में परोक्ष रूप से स्थान दिया है। किन्तु आज तक उन दार्शनिकों के विचारों में रहे हुए दोषों की विस्तृत चर्चाओं से पाश्चात्य दर्शन का इतिहास भरा पड़ा है और इन दार्शनिकों के खंडन का सम्भवत: अब तक प्रतिवाद भी नहीं हुआ है। प्रो. स्टेबिंग ने भी यही अभिप्राय व्यक्त करते हुए लिखा है-“यद्यपि जीन्स ने यह माना है कि जो व्यक्ति भौतिक विज्ञान के आधार पर दार्शनिक धारणाओं का निर्माण करना चाहता है, उसके लिए यह लाभदायक होगा कि वह दर्शन की शिक्षा पाया हुआ न हो अथवा दर्शन के प्रति उसकी रुचि न हो, फिर भी ऐसा लगता है कि उन्होंने प्लुतो और बर्कले के दर्शनों का अच्छा अध्ययन किया है। परन्तु स्पष्टतया प्रतीत होता है कि इन्होंने इन दार्शनिकों के बारे में की गई आलोचनाओं का अध्ययन नहीं किया है और इसका ही यह परिणाम है कि वे नहीं जानते कि उन्होंने उसी विचारधारा का प्रतिपादन किया है, जो अत्यन्त ही गम्भीर रूप से आलोचित हो चुकी है-जो अधिकतर दार्शनिकों के मत में तो निश्चयपूर्वक खंडित हो चुकी है।'
१. वही, पृ० १२४ । २. वही, पृ० ११४, १२५ । ३. वही, पृ० १२७ । ४. फिलोसोफी एण्ड दी फिजिसिष्ट्स, पृ० २६५ ।
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