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दर्शन और विज्ञान
२१ जो जीन्स के दर्शन की अस्पष्टता और त्रुटियों का विशद दिग्दर्शन कराते है।
कुछ एक अस्पष्टताएं तो हमें भी सहसा प्रतीत होती है। जैसे एक स्थान में जीन्स ने विश्व को ईथर-तत्त्व की उर्मि-मालाओं से बना हुआ प्रतिपादित करते हुए लिखा है, “यह विश्व जिनसे बना है, वे ईथर-तत्त्व और उनकी उर्मि-मालाएं पूर्ण सम्भावनाओं के साथ काल्पनिक ही प्रतीत होती हैं। किन्तु कहने का अर्थ यह नहीं है कि उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, हां वे हमारे मस्तिष्क में अस्तित्व रखती हैं, अन्यथा तो हम उनकी चर्चा ही नहीं करते और इनके अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क के बाहर भी ऐसा 'कुछ' विद्यमान होना चाहिए, जो कि इन विचारों को या अन्य विचारों हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न करता हो। इस 'कुछ' को हम अस्थाई रूप से वास्तविकता' की संज्ञा दे सकते हैं। इसी वास्तविकता का अध्ययन करना विज्ञान का उद्देश्य है। अब इस उदाहरण को समालोचनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाये तो जीन्स के चिन्तन की अस्पष्टता स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाती है। प्रथम तो जीन्स ने ईथर-तत्त्वों और उनकी उर्मि-मालाओं को पूर्ण सम्भावनाओं के साथ काल्पनिक बताया है। इसका तात्पर्य यही होता है कि इनका कोई वास्तविक अस्तित्व है ही नहीं और इसलिए विश्व जो इनसे बना हुआ है भी केवल काल्पनिक है, किन्तु वे स्वयं ही स्वीकार करते हैं कि काल्पनिक' का अर्थ 'अस्तित्वहीन' नहीं है और इसलिए वे उनको मस्तिष्क में अस्तित्व रखने वाले बताते हैं। साथ ही वे यह भी अनुभव करते हैं कि कुछ ऐसी भी वस्तु मस्तिष्क से बाहर (अर्थात् वस्तु-सापेक्ष रूप से) अस्तित्ववान् होनी चाहिए, जिनके निमित्त से हम ईथरों की और इनके तरंगों की कल्पना करते हैं। अब यदि इस प्रकार की वस्तुएं वास्तविक अस्तित्व रखती हैं तो विश्व को केवल ईथर-तरंगों के रूप में मानकर काल्पनिक कहना किस प्रकार संगत हो सकता है? इस प्रकार के अनेकों स्थल उनकी कृतियों में पाये जाते हैं, जिनको पढ़ने से पाठकों को यह पता नहीं चल पाता कि लेखक क्या कहना चाहते हैं। जीन्स अपने आप ही किस प्रकार उलझे हुए हैं, इसकी स्पष्ट झांकी हमें उनके उस कथन से मिलती है, जहां वे आदर्शवाद और वास्तविकतावाद के बीच की भेद-रेखा को ही स्पष्ट रूप से परखना कठिन मानते हैं। वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के अस्तित्व को स्वीकार करने पर भी उसे वास्तविकता कहने में वे हिचकिचाते हैं तथा उसे 'गाणितिक' की संज्ञा देकर विश्व' को शुद्ध विचारों से बना हुआ बता कर जीन्स ने वस्तुत: कुछ भी स्पष्ट नहीं किया है, प्रत्युत उलझन ही पैदा कर दी है। वे पदार्थत्व को केवल एक मानसिक विचार के रूप में बताते हैं और साथ १. दी मिस्टीर्यस युनिवर्स, पृ० ७० । २. देखें, दी मिस्टीर्यस युनिवर्स, पृ० १२३ ।
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