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________________ विश्व का परिमाण और आयु २७१ के मध्य में समय-क्षेत्र' है। समय-क्षेत्र में ही सूर्य चन्द्रकृत व्यावहारिक काल होता है। समय-प्रवाह के साथ प्रकृति की कुछ प्रक्रियाओं में परिवर्तन भी होता रहता है। इन परिवर्तनों को समझाने के लिए अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल-चक्र' का सिद्धान्त है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का अर्थ हास और विकास का एक सुदीर्घ काल-चक्र। एक काल-चक्र २० कोटाकोटि अद्धा-सागरोपम काल में पूरा होता है। इतना काल व्यतीत होने में असंख्य वर्ष बीत जाते है। प्रत्येक काल-चक्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के चक्रार्ध होते हैं। उत्सर्पिणी काल-चक्राध में समय क्षेत्र की प्रकृतिजन्य सभी प्रक्रियाएं क्रमश: निर्माण और विकास की ओर बढ़ती हैं और अन्त में प्रगति चरम सीमा को प्राप्त होती है। इसके बाद अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध के प्रारम्भ होने पर वे प्रक्रियाएं पुन: ध्वसं और हास की ओर चलती हैं और अन्त में वे विनाश की चरम मर्यादा तक पहुंचती हैं। दूसरे शब्दों में उत्सर्पिणी के काल-चक्रार्ध में प्रकृति की चाबी भरी जाती है और चरम अवस्था के बाद पुन: उसका खाली होना प्रारम्भ होता है। अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध के अंत तक प्रकृति की चाबी की रिक्तता उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त करती है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की परिभाषा करते हुए कहा गया है, “जिस काल-चक्रार्ध में सभी शुभ भाव क्रमश: क्षीण होते हैं और अशुभ भाव क्रमश: वृद्धिंगत होते हैं, वह 'अवसर्पिणी' है। जिस काल-चक्रार्ध में सभी शुभ भाव क्रमश: वृद्धि को प्राप्त करते हैं और अशुभ भाव क्रमश: क्षीण होते हैं, वह उत्सर्पिणी है।" अवसर्पिणी काल में पुद्गलों में (परमाणु तथा परमाणु-समूहों में) स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि की अपेक्षा से अनन्त गुण की हानि होती है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत होता है। उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी, इस प्रकार काल-चक्र चलता रहता है। अनादि भूत में अनन्त काल-चक्र व्यतीत हो गये और अनन्त भविष्य में अनन्त काल-चक्र व्यतीत होंगे। प्रत्येक काल चक्रार्ध के छ: खण्ड होते हैं, जिनको 'आरा' कहते हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में उत्तरोत्तर हानि और वृद्धि का विस्तृत वर्णन जैन आगमों में मिलता है। यहां पर केवल तीन प्रक्रियाओं के विषय में हानि-वृद्धि की चर्चा की जाती है। १. दिगम्बर परम्परा में एक काल-चक्र के वर्षों की संख्या का नाम 'कल्प' भी मिलता है। अर्ध-महाकल्प के ४१३, ४५२, ६३०, ३०२, २०३, १७७, ७४९, ५१२, १९२४१०५० वर्ष होते हैं। अर्थात् महाकल्प के ८.२६४१०७६ वर्ष होते हैं। किन्तु यह संख्या असंख्य वर्षों की अपेक्षा में अत्यन्त छोटी है। वस्तुत: तो दिगम्बर परम्परा के अनुसार उत्कृष्ट संख्यात वर्ष का मान 'अचलात्म' है। अचलात्म के ८४९x१०० वर्ष होते हैं। जो कि, ४.५४१०१४९ लगभग होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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