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________________ २७० जैन दर्शन और विज्ञान एकान्तता को स्वीकार नहीं करता। इसलिए 'विश्व' को जहां एक ओर शाश्वत मान लिया गया, वहां दूसरी ओर परिवर्तनशील भी । पूर्व विवेचित 'परिणामी - नित्यवाद' इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि प्रत्येक पदार्थ 'उत्पत्ति और नाश' रूप परिवर्तन के होते हु भी अपना अस्तित्व रख लेता है । दूसरे शब्दों में विश्व के समस्त पदार्थ-जीव और अजीव-उत्पत्ति, नाश और ध्रुवता की त्रिपुटी से युक्त हो जाते हैं । इस प्रकार विश्व शाश्वत भी है, अशाश्वत भी । विश्व छ: द्रव्यों का समूह मात्र है, अतः विश्व की 'शाश्वतता--अशाश्वतता' को समझने के लिए छ: द्रव्यों की शाश्वतता - अशाश्वतता का विश्लेषण आवश्यक होगा । छहों ही द्रव्य कब, कैसे और किससे अस्तित्व में आए ? इन प्रश्नों का समाधान 'अनादि' अस्तित्व के स्वीकार करने से ही हो सकता है । अर्थात् जो द्रव्यों के अस्तित्व को 'सादि' स्वीकार करते हैं, उनके लिए ये समस्याएं बनी रहती हैं । किन्तु जो द्रव्यों के अस्तित्व को 'अनादि' मानते हैं, उनके लिए यह प्रश्न उठते ही नहीं । द्रव्यों के अस्तित्व को 'सादि' मानने पर असत् से सत् की उत्पत्ति स्वीकार करनी पड़ती है। यह कार्यकारणवाद के साथ संगत नहीं हो सकता। क्योंकि उपादान कारण यदि असत् होता है, तो कार्य सत् नहीं हो सकता। इसलिए उपादान की मर्यादा को स्वीकार करने वाले असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं मान सकते, नियामकता की दृष्टि से ऐसा होना भी नहीं चाहिए । अन्यथा समझ से परे की अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है । अत: छ: द्रव्यों का अस्तित्व अनादि सिद्ध हो जाता है । परिणामी - नित्यत्ववाद इन द्रव्यों के अस्तित्व को अनन्त सिद्ध कर देता है । इस प्रकार षड् द्रव्य अस्तित्व की दृष्टि से 'अनादि-अनन्त' सिद्ध हो जाने पर विश्व की शाश्वता प्रमाणित हो जाती है । षड् द्रव्यों में होने वाले 'परिणमन' विश्व को 'अशाश्वत' भी बना देते हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल; इन चार द्रव्यों में स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । इस परिणमन के कारण ही शाश्वत काल तक ये पदार्थ अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं । दृश्य विश्व की समस्त लीलाएं पुद्गलास्तिकाय (पुद्गल ) और जीवास्तिकाय (आत्मा) के परिणमनों के कारण होती रहती हैं । काल- चक्रीय विश्व- सिद्धांत विश्व की शाश्वतता - अशाश्वतता का अब तक का विवेचन समग्र विश्व की दृष्टि से किया गया । विश्व के मध्य भाग में स्थित 'तिर्यग् लोक' के विशेष स्थानों के लिए 'अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी काल - चक्र के सिद्धान्त को जैन दर्शन स्वीकार करता है । समग्र लोक की ऊंचाई १४ रज्जु है, अधोलोक की ७ रज्जु से कुछ अधिक है और ऊर्ध्वलोक की ७ रज्जु से कुछ कम । इन दोनों के बीच में तिर्यग्-लोक है । तिर्यग्-लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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