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विश्व का परिमाण और आयु
२९३ विश्व-सिद्धांत' के साथ है, वह इसके साथ भी स्वाभाविक रूप से हो ही जाता है। परन्त काल के दृष्टिकोण से विश्व के निरूपण के विषय में यह सिद्धांत और जैन दर्शन एक-दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं। दोनों ही विश्व के अस्तित्व को अनादि-अनन्त स्वीकार करते हैं और काल-प्रवाह के साथ विश्व के आरोह-अवरोह का प्रतिपादन करते हैं।
___आइन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की समानता' के नियम पर आधारित चक्रीय विश्व-सिद्धांत की विस्तृत चर्चा में हमने देखा कि किस प्रकार यह सिद्धांत विश्व को निर्माण और ध्वंस के अनन्त चक्रों में से गुजरने वाला किन्तु शाश्वत घोषित करता है। वैज्ञानिक जगत् में यह एक ऐसा सिद्धांत है, जो जैन दर्शन के कालचक्र-सिद्धांत के साथ अधिकतम सामंजस्य रखता है। चक्रीय विश्व-सिद्धांत' और 'अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का सिद्धांत' स्थूल रूप से एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं कि विश्व की प्रक्रियाओं में काल-प्रवाह के साथ निर्माण और ध्वंस क्रमश: होता रहता है और इन चक्रों के चलते रहने पर भी विश्व का अस्तित्व अनादि अनन्त है।
'चक्रीय विश्व-सिद्धांत' के विषय में निम्न दो बातें उल्लेखनीय हैं
१. यह सिद्धांत जिन परिकल्पनाओं पर आधारित है (जिनका संक्षिप्त विवेचन हम कर चुके हैं), वे ठोस प्रायोगिक और सैद्धांतिक आधार पर निर्मित
२. इस सिद्धांत के अन्तर्गत विश्व का केवल काल की दृष्टि से ही निरूपण किया गया है, अत: विश्व-आकाश विस्तारमान है या स्थिर, इसके विषय में यह सिद्धांत कुछ भी नहीं कहता।
___ अतिपरवलीय विश्व-सिद्धांत और स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व-सिद्धांत में केवल इतना ही अन्तर है किस अतिपरवलीय विश्व-सिद्धांत विश्व को काल की दृष्टि से अनादि-अनन्त मानता हुआ भी उसमें केवल एक संकोच-विस्तार की कल्पना करता है, जबकि स्वत:संचालित कंपनशील विश्व में अनन्त संकोच-विस्तार की कल्पना की गई है; अत: स्वत: संचालित कंपनशील विश्व के साथ जैन दर्शन के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी-सिद्धांत का जितना सादृश्य था, उतना अतिपरवलीय सिद्धांत के साथ नहीं है।
डॉ. ज्योर्ज गेमो का उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त' भी 'अतिपरवलीय विश्व सिद्धान्त' पर आधारित है। डॉ. गेमो ने 'उद्विकासी-विश्व' के प्रतिपादन में एक मनोरंजक कल्पना की है। सिकुड़ते हुए और विस्तृत होते हुए विश्व में काल-प्रवाह के साथ विश्व की अन्य प्रक्रियाओं पर क्या प्रभाव रहा होगा, इस विषय का निरूपण
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