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१. दर्शन और विज्ञान
तुलनात्मक अध्ययन
(१) दर्शन और विज्ञान में निकटता मानव-मस्तिष्क जिज्ञासाओं का महासागर है। उसमें प्रश्नों की तरंगें और कल्लोलें उठती रहती हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा ज्योंही प्रकृति की प्रक्रियाओं का दर्शन करता है, त्योंही कैसे? क्यों? क्या? कब से? कब तक? आदि प्रश्न खड़े हो जाते हैं। तब मनुष्य अपनी बुद्धि, तर्क या अन्त:दर्शन (intuition) के सहारे इन्हें समाहित करने का प्रयत्न करता है। जो इन प्रश्नों के उत्तर अपने सहज अन्त:दर्शन के सहारे दे सकता है, वह दार्शनिक है। दूसरी और जो बौद्धिक ज्ञान के आधार पर इन्हें उत्तरित करता है, वह वैज्ञानिक है। दर्शन और विज्ञान दोनों ज्ञान-स्रोत की धाराएं हैं। उच्चस्तरीय समन्विति की उपेक्षा
___ भारतीय दर्शन एवं इतिहास के मर्मज्ञ डा. गोविन्दचन्द्र पाण्डे ने दर्शन और विज्ञान की समन्विति के बहुत ही मार्मिक रूप में इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है
'ज्ञान कर्म की एक पूर्वापक्षा है और अतएव समस्त व्यावहारिक जीवन नाना प्रकार के खंडज्ञान पर आधारित है। शिल्पी हो या व्यापारी, राजा हो या सिपाई, सभी अपने व्यवहार के लिये आवश्यक ज्ञान खोजते हैं। इस प्रकार का व्यवहार्थ खडज्ञान विकास के साथ समुचित और व्यवस्थित होने लगता है। कुतूहली और तर्कशील मस्तिष्क इस व्यवस्था में एक अनिवार्य संगति, एक मौलिक अन्विति खोजता है। इस खोज के परिणाम स्वरूप एकदेशी व्यावहारिक ज्ञान क्रमश: न्याय-सूत्र से संग्रथित अमूर्त तत्त्वों के प्रतिपादक एक शास्त्र का रूप धारण कर लेता है, इसी को विज्ञान कहते हैं। अमूर्त और समग्र तत्त्वों की ओर उद्दिष्ट होते हुए भी विज्ञान का एक छोर व्यवहार से बंधा रहता है। विज्ञान की धारणाओं ओर सिद्धान्तों का अन्तिम निकर्ष उनकी व्यावहारिक उपयोगिता और प्रयोजनीयता ही है। यही कारण है विज्ञान के अधिकाधिक प्रचार और प्रसार का और उसके कोरे शब्द-जाल से मुक्त रह कर निरन्तर प्रगति कर सकने की अदभुत क्षमता का। व्यावहारिक जीवन खंड सुख-दुख को लेकर प्रवृत होता है। विज्ञान की भी चरम उपयोगिता इसी संदर्भ में है।
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