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जैन दर्शन और विज्ञान इसके द्वारा मनुष्य नाना प्रकार के भौतिक साधन प्राप्त करता है, जिनसे वह अपने विशिष्ट दुःखों के परिहार और सुखों की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। पर विज्ञान से मनुष्य को अपने चरम साध्य का ज्ञान नहीं हो सकता। मूलत: मनुष्य एक आत्मा है, जो अपने स्वरूप की ओर लौटना चाहती है, जो कि स्वर्गिक सख में भी कभी ऐकान्तिक तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकती। मनुष्य यदि केवल देही ही होता और प्रकृति के क्षेत्र में प्रवृति मात्र उसका जीवन होता, तो सम्भवत: विज्ञान ही उसके लिये परम विद्या होती, परन्तु मनुष्य अपन को संसार के बन्धन में छटपटाता अनुभव करता है और मुक्ति के मार्ग को खोजता है। आत्म-ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं, इसीलिए जहां लोक-व्यवहार में निरत मनुष्य वस्तुज्ञानात्मक विज्ञान का सहारा लेता है, वहीं परमार्थ पक्ष का पथिक मनुष्य आत्म-ज्ञान रूपी दर्शन का प्रकाश ढूंढता है। यही दर्शन और विज्ञान का निगूढ़ सम्बन्ध है। विज्ञान बहिर्मुख है, दर्शन अध्यात्म-प्रवण । विज्ञान वस्तुजगत् को परिवर्तित करने के साधन देता है, दर्शन ऐसी अन्त-दृष्टि, जिससे मन को मुक्ति मिले।
___इस प्रकार एक मौलिक भेद के होते हुए भी विज्ञान और दर्शन अपने परम्परागत रूपों में निकट सम्बन्धी रहे हैं। समग्र विश्व के स्वरूप की जिज्ञासा दोनों में समान है। प्राचीन काल में विश्व-विज्ञान दार्शनिक प्रस्थानों का एक नियत अंग था। दर्शन के इस अंश से ही परवर्ती वैज्ञानिक चिन्तन ने अपनी प्रेरणा पाई है। बहत दिनों तक विज्ञान को प्रकृति-दर्शन कहा जाता था। न्यूटन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ को 'प्राकृतिक दर्शन के गाणितिक सिद्धांत' नाम दिया है। पश्चिम में जैसे-जैसे आधनिक काल में विज्ञान का विकास हुआ, दर्शन ने प्राकृतिक विश्व के सम्बन्ध में अपने को विज्ञान का अनुचर मात्र मान लिया है आजकल बहुत से दार्शनिक कहते हैं कि दर्शन का वस्तु-सत्यों से सम्बन्ध नहीं, उनके अनुसार दर्शन का ठीक विषय ज्ञान अथवा मूल्यों की मीमांसा है। दूसरी ओर विश्व के स्वरूप के सम्बन्ध में परिकल्पनाएं वैज्ञानिक चिन्तन में नाना रूप से प्रकट हुई हैं और इन्हें दार्शनिक प्रवृतियों से असम्पृक्त नहीं माना जा सकता है। इस परिस्थिति का परिणाम एक विचित्र उलझन में है। विशुद्ध दार्शनिकरण विज्ञान की सहायता के बिना विश्व के स्वरूप का निर्धारण नहीं कर सकते और न विशुद्ध वैज्ञानिक ही दर्शन की सहायता के बिना अपने परम सिद्धांतों के व्यवस्थित और संगत रूप दे सकते हैं। दर्शन और विज्ञान की एक नई उच्चस्तरीय समन्विति आज के चिन्तन की परमावश्यकता है।"
विज्ञान और दर्शन का लक्ष्य एक होते हुए भी इनके साधनों में अन्तर है। दर्शन अन्तर्ज्ञान-शक्ति (Intutional Power) पर आधारित होता है, जबकि १. विश्व-प्रहेलिका, भूमिका, पृ० १,२ ।
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