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________________ ८० जैन दर्शन और विज्ञान वह अंगारे के ताप का शोषण कर लेता है, कपड़ा जलता नहीं। प्राचीन काल में रत्न-कंबल बनते थे। उनकी धुलाई अग्नि से होती थी। वे अग्नि में नहीं जलते थे, क्योंकि उनमें ताप-अवशोषण की क्षमता होती है। ईंटें भी ऐसी होती हैं जिन पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता। नियमों को जान लेने पर आश्चर्य जैसा कुछ नहीं रहता। हम स्थूल चेतना के नियमों को जानें, सूक्ष्म चेतना के नियमों को जानें । इसका तात्पर्य है कि हम स्थूल शरीर के नियमों को जानें और कर्म-शरीर के नियमों को भी जानें। इन नियमों के ज्ञात होने पर ही सत्य की चेतना बहुत स्पष्ट हो जाती है। सत्य तब उपलब्ध होता है या भीतर और बाहर की दूरी तब मिटती है जब हम भीतर के विकारों का शोषण करना सीख जाते हैं। कोरा सत्य का ज्ञान, कोरा सत्य को बोध, कोरा सत्य का संगान करने से कुछ नहीं होता। प्राप्त होता है विकार या मोह के उपशमन से। भीतर के उपद्रव, विकार, बुराइयां और भीतर की बीमारियां जितनी कम होती जाएंगी, उतना ही जीवन में सत्य प्रज्वलित होता जाएगा। हमारे मस्तिष्क में अरबों-खरबों सेल्स हैं। सब अपना-अपना कार्य करते हैं। जिस व्यक्ति में सत्य का प्रकोष्ठ (सेल्स) जागृत हो जाता है, सक्रिय हो जाता है, उसमें गहरी सत्यनिष्ठा जाग जाती है। वह अपने नियम या प्रण से बंध जाता है। उसमें प्रामाणिकता आ जाती है। प्रामाणिकता भी नियम के कारण आती है। वह जाने-अनजाने अप्रामाणिक कार्य नहीं करता। यह सत्यनिष्ठा विकार-शमन से प्राप्त होती है। जब आन्तरिक दोष न्यून होते जाते हैं, तब ये सेल्स जागृत होते जाते हैं। किसी-किसी व्यक्ति की पवित्र आत्मा में सत्यनिष्ठा का प्रकोष्ठ जाग जाता है। जो साधना का जीवन जीते हैं, उन्हें इस सत्यनिष्ठा का अभ्यास ही नहीं, इसे जीवनगत करना जरूरी है। सत्य में बाधा डालने वाले विकारों और वासनाओं का अतिक्रमण करना आवश्यक है। यह होने पर ही सत्यनिष्ठा प्रज्वलित हो सकती है। अभ्यास १. धर्म एवं अध्यात्म जैसी प्राचीन विद्याओं का विज्ञान जैसी आधुनिक विद्या के साथ तुलना कहां तक सम्भव है? २. क्या विज्ञान ने धर्म का कोई उपकार किया है? ३. जैन आगमों के सुक्ष्म सत्यों को सरल भाषा में समझाएं तथा विज्ञान के सन्दर्भ में उनकी व्याख्या प्रस्तुत करें। ४. आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में समुद्घात को समझाएं। ५. शरीर के सूक्ष्म रहस्यों पर वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश डालें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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