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________________ १५८ जैन दर्शन और विज्ञान अन्तर्वृत्ति की दृष्टि से हमें मांसाहार के प्रश्न पर विचार करना चाहिए। जिन पशुओं, पक्षियों और जलचर जीवों का मांस खाया जाता है, उनमें तामसिक वृत्तियां प्रबल होती हैं। मांस पशु के शरीर का अभिन्न भाग होता है, जिसके कण-कण में तामसिक वृत्तियां उभरती हैं। उस मांस को खाने वाला क्या पाशविकता के संस्कारों से बच पाएगा? कभी नहीं। मनुष्य में पाशविकता, अज्ञान, प्रमाद और क्रूरता के बढ़ने का बहुत बड़ा कारण है-मांसाहार । मांसाहार ने निश्यच ही मनुष्य को कुछ अंशों में पशु बनाया है और उसमें पाशविक वृत्तियां पैदा की हैं, अन्यथा मनुष्य कुछ ऐसे आचरण नहीं करता जो पशु के लिए ही उचित हो सकते हैं, मनुष्य के लिए नहीं। मांसाहार के निषेध की चर्चा पहले अहिंसा के दृष्टिकोणों से की जाती थी, अब यह अन्तवृत्तियों के दृष्टिकोणों से की जा रही है। सभी चाहते हैं कि हमारे समाज में अपराध की बाढ़ न आए, किन्तु अन्तर्वत्तियों को परिष्कृत किए बिना अपराध की बाढ़ को रोका नहीं जा सकता। अन्तवृत्तियों को विकृत बनाने वाली वस्तुओं के प्रयोग को छोड़े बिना उन्हें परिष्कृत नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से मांसाहार का प्रश्न मनुष्य के लिए बहुत चिन्तनीय है। यह एक ऐसी समस्या है, जिसे दूसरी समस्याएं उपस्थित कर, मनुष्य अपनी दृष्टि से ओझल करना चाहता है, किन्तु वह दृष्टि से ओझल होकर भी अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहती और स्वयं समाहित नहीं होती। मन शान्त और पवित्र रहे, उत्तेजनाएं कम हों-यह अनिवार्य अपेक्षा है। इसके लिए आहार का विवेक होना जरूरी है। अपने स्वार्थ के लिए बिलखते हुए मूक प्राणी की निर्मम हत्या करना क्रूर कर्म है। मांसाहार इसका बहुत बड़ा निमित्त है। इसलिए अनिवार्यता, अन्तर्वृत्ति और करुणा-इन सब दृष्टियों से मांसाहार का वर्जन आहार-विवेक का महत्त्वपूर्ण अंग है। विश्व के हर कोने से वैज्ञानिक व डॉक्टर यह चेतावनी दे रहे हैं कि मांसाहार कैंसर आदि असाध्य रोगों का निमित्त बनकर आयु क्षीण करता है, और शाकाहार अधिक पौष्टिकता व रोगों से लड़ने का क्षमता प्रदान करता है। __ पशुओं के मारने से पूर्व उनके शरीर में पल रहे रोगों की उचित जांच नहीं की जाती और उनके शरीर में पल रहे रोग-मांस खाने वाले के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं; फिर जिस त्रास व यन्त्रणापूर्ण वातावरण में इनकी हत्या की जाती है उस वातावरण से उत्पन्न हुआ तनाव, भय, छट-पटाहट क्रोध आदि पशुओं के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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