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जैन दर्शन और विज्ञान न्यूट्रॉन भी तीन क्वार्कों से मिलकर बना है, दो ऋण १/३ आवेश वाले और एक धन २/३ आवेश वाला, जिसमें कुल आवेश शून्य होगा। 'मेसॉर्न' दो क्वार्कों से मिल कर बना है। डॉ0 गेलमान के अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि ये कण स्वतंत्र रूप में ही पाये जाएं। ये केवल बल (फोर्स), ऊर्जा (एनर्जी) अथवा धारा (करेंट) के रूप में भी हो सकते हैं, जो नाभिकीय कणों के भीतर तेजी से घूमते रहते हैं या जिनका अस्तित्व स्थिर कणों के रूप में केवल नाभिक के भीतर ही संभव है
और इसलिए इन्हें बाहर से शायद कभी नहीं देखा जा सकता। उनकी यह बात जैन दर्शन के परमाणु-सिद्धांत से कुछ मेल खाती प्रतीत होती है। 'नेगेट्रॉन्स, या भारी ऋणाणु' रूक्ष-के-साथ-रूक्ष का बंधन चरितार्थ करते हैं। प्रोटॉन' का क्वार्क' स्निग्ध-का-स्निग्ध के साथ बंधन है। जैनदर्शनकार भी यही कहते हैं कि रूक्ष परमाणु रूक्ष-के-साथ और स्निग्ध परमाणु स्निग्ध-के-साथ दो से ले कर यावत् अनन्त गुणाशों की तरतमता से बन्धन को प्राप्त होते हैं। स्निग्ध और रूक्ष परमाणु तो बिना किसी शर्त के बन्ध जाते हैं, पर एक गुण रूक्ष और एक गुण स्निग्ध परमाणु कभी बन्धन को प्राप्त नहीं होते । सूक्ष्म परिणमन
आधनिक भौतिक की क्वाण्टम गतिकी', जिसे वैज्ञानिक मैक्स प्लांक; नील्स बोहर, लुइस दे ब्रोगली, श्रोडिंगर, हाइजनबर्ग, बोर्न तथा पौली ने विकसित किया, के अनुसार एक गतिशील कण किन्हीं परिस्थितियों में एक कण की भांति व्यवहार करता है तथा किन्हीं परिस्थितियों में एक तरंग की भांति। किसी गतिशील कण की सही स्थिति तथा सही वेग का हम एक साथ पता नहीं कर सकते; इन में-से यदि एक का मान ठीक से ज्ञात कर भी लिया जाए तो दूसरे के मान में कुछ अनिश्चितता रहती है। किसी गतिशील कण की सही स्थिति तथा वेग को हम एक साथ नहीं जान सकते, उसकी प्रायिकता (प्राबेबिलिटि) ही ज्ञात की जा सकती है। जैन दर्शन के अनुसार परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में है और वैभाविक गति वक्र रेखा में। परमाणु कम-से-कम एक समय में एक आकाश-प्रदेश का अवगाहन कर सकता है और अधिक-से-अधिक उसी समय में चतुर्दश रज्ज्वात्मक समूचे विश्व का। स्पष्ट है कि अणु-परमाणु कण के गति-संबंधी विचारों में दर्शन और विज्ञान में समानता भी है और असमानता भी, क्योंकि आधुनिक विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रॉन की गति गोलाकार है।
१. आधुनिक विज्ञान में कृष्ण-विवर (Black Hole) और जैन दर्शन में कृष्णराजि और तमस्काय का वर्णन बहुत समान हुआ है जिसमें इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। देखें भगवती सूत्र (भाष्य), ६/७०-१०६ ।
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