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जैन दर्शन और परामनोविज्ञान
१०७ भगवती सूत्र में केवल यही बताया गया है कि गोशालक ने सभी जीवों में पोट्ट परिहार का सिद्धांत बना लिया था जिसके अनुसार सभी जीवों के लिए निर्वाण से पूर्व सात जन्मों में पोट्ट परिहार करना अनिवार्य माना गया। पर इससे यह अर्थ तो नहीं निकलता कि भगवान् महावीर वनस्पतिकाय के अतिरिक्त अन्य जीवों मे पोट परिहार के सिद्धांत को गलत मानते थे। भगवती के आधार पर ये बातें स्पष्ट होती हैं
१. गोशालक ने अपने आप को जो गोमायुपुत्र अर्जुन के जीव का गोशालक के शरीर में पोट्ट परिहार बताया था, वह असत्य था।
२. गोशालक ने सभी जीवों में पोट्ट परिहार की अनिवार्यता बताई थी, वह असत्य था।
३. वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार की संभाव्यता को महावीर ने स्वीकार किया
था।
४. अन्य जीवों में भी पोट्ट परिहार संभव हो सकता है, इसका खण्डन महावीर ने कहीं नहीं दिया।
उक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वनस्पतिकाय की तरह अन्य जीवयोनियों में भी पोट्ट परिहार संभव है। इस बात की पुष्टि भगवती सूत्र के एक अन्य पाठ से इस प्रकार होती है
भगवान् महावीर ने मनुष्यणी के गर्भ-काल को जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट. १२ वर्ष बताया है। कायभवस्थ का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट चौबीस वर्ष बताया है। वृत्तिकार इसकी व्याख्या में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एक जीव गर्भ में १२ वर्ष तक रहकर मृत्यु को प्राप्त होकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो सकता है और दूसरी बार फिर १२ वर्ष की और रह सकता है। इस प्रकार मनुष्य शरीर में भी पोट्ट परिहार को स्वीकार किया गया है। सिद्धांत की दृष्टि से यदि वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार हो सकता है, तो मनुष्य-शरीर में भी हो सकता है।
अस्तु, यहां तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसी घटना में भी सामान्य मनोविज्ञान के सिद्धांत या अन्यान्य परिकल्पनाएं व्याख्या करने में अक्षम ही रह जाते हैं। केवल पुनर्जन्मवाद ही इसकी व्याख्या न्यूनतम स्वयं-तथ्यों (axioms) के आधार पर कर सकता है। उपसंहार
डॉ. स्टीवनसन ने अपने विशाल ग्रन्थ के उपसंहार में लिखा है
" I belive, however, that the evidence favouring reincarnation as a hypothesis for the cases of this type has increased since I
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