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जैन दर्शन और विज्ञान लगभग एक ही समय में मृत्यु होना, और शोभाराम की आत्मा के द्वारा जसवीर के मृत शरीर में पुनर्जन्म लेना तथा शोभाराम के रूप में अपने पूर्व जन्म की स्मृति को बनाए रखना-पूर्वजन्म सम्बन्धी घटनाओं में एक विलक्षण घटना है। मृत्यु के पश्चात् नए जन्म के लिए सामान्य रूप से आत्मा स्वयं अपने नए देह का निर्माण करता है
और निश्चित समय तक गर्भस्थ रहने के पश्चात् ही माता के उदर से बाहर आकर अपने नए जीवन का प्रारम्भ करता है। उक्त घटना में शोभाराम द्वारा सीधे ही जसवीर के मृत शरीर में जन्म लेना-इस सामान्य क्रम से नितांत भिन्न एवं विलक्षण क्रम है। यद्यपि पुनर्जन्मवाद को स्वीकार करने वाले धर्म-दर्शनों में भी ऐसे क्रम के विषय में संभवत: कोई व्याख्या नहीं मिलती, फिर भी जैन आगम भगवती सूत्र में आए हुए प्रवृत्त परिहार (या पोट्ट परिहार) नामक सिद्धांत में इसकी चर्चा मिलती है। आजीवक सम्प्रदाय के अधिनायक गोशालक द्वारा इसका प्रतिपादन किया गया है। गोशालक भगवान् महावीर के प्रवचनों का प्रतिवाद करता हुआ यह प्रतिपादित करता है कि वह गोशालकं नहीं है, जिसने महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी, वरन् वह गोशालक के मृत शरीर में जन्म लेनेवाला गोमायुपुत्र अर्जुन है। भगवान् महावीर गोशालक के इस कथन को असत्य घोषित करते हैं। यद्यपि गोशालक की अपनी बात असत्य थी, फिर भी इससे इस प्रकार की जन्म-प्रक्रिया की संभावना को सर्वथा निषिद्ध तो नहीं माना जा सकता। यह अवश्य गवेषणा का विषय है कि जैन दर्शन इस प्रकार के जन्म की व्याख्या किस प्रकार प्रस्तुत करता है।
वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार होता है, यह सिद्धांत तो स्वयं भगवान महावीर द्वारा माना गया है। गोशालक और तिल के पौधे की घटना के सन्दर्भ में स्वयं भगवान् महावीर कहते हैं- “ गौशालक ! यह तिल का पौधा फलित होगा, तथा ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी पौधे की एक तिलफली में सात तिल होंगे..........''........... वे सात तिलपुष्प के जीव मरकर उसी पौधे की एक तिलफली में सात तिल हो गए हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकाय के जीव “ प्रवृत परिहार'' (पोट्ट परिहार) का उपभोग करते है-मरकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं।
भगवती सूत्र के उक्त प्रसंग के सन्दर्भ में आगे भगवान् महावीर कहते हैं-'तत्पश्चात् गोशालक ने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। वह तिल के पौधे के पास गया और उस फली को तोड़कर तथा हथेली में मसलकर तिल गिनने लगा। गिनने पर सात ही तिल निकले। इससे उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-“यह निश्चित बात है कि सर्व प्राणी मरकर पुन: उसी शरीर में ही उत्पन्न होते हैं। गोशालक का यही 'प्रवृत्य परिहार वाद' या परिवर्तनवाद है।''
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