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जैन दर्शन और विज्ञान ध्यातव्य हैं :
१. आकाश एक वस्तु सापेक्ष वास्तविकता है; किन्तु पुद्गल (मैटर) से भिन्न
है।
२. आकाश लोक और अलोक के रूप में विभाजित है। ३. विश्व (लोकाकाश) का आकार त्रिशरावसम्मुट' होने के कारण वक्रतायुक्त है।
४. विश्व का परिमाण (वाल्युम) किसी भी रूप में १०१० घन माइलों से कम नहीं है।
५. अलोकाकाश अनन्त है। वह रिक्त होते हुए भी असत् (अवास्तविक) नहीं है।
६. लोकाकाश में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो द्रव्य (reality) हैं, जो कि गति और स्थिति के असाधारण माध्यम हैं। अलोकाकाश में इनका अभाव होने से वहां कोई अन्य द्रव्य न तो है और न जा सकता है।
७. आकाश-द्रव्य अगतिशील है।
८. सभी पदार्थ (सत्) द्रव्यत्व की अपेक्षा से शाश्वत-अनादि-अनन्त हैं; अत: विश्व भी शाश्वत है।
९. विश्व के विशेष क्षेत्रों में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालचक्र का प्रवर्तन होने से प्रकृति की प्रक्रियाओं में आरोह-अवरोह होते रहते हैं।
अस्तु आज के इस यन्त्र-प्रधान युग में, दीर्घकाय दूरवीक्षणयंत्र' (टेलिस्कॉप), रेडियो-दूरवीक्षणयंत्र, सूक्ष्मवीक्षणयंत्र (माइक्रोस्कोप), वर्णपट मापक यंत्र (स्पेक्ट्रोमीटर) आदि यथार्थतम मापने वाले यन्त्रों से सुसज्जित वैधशालाओं एवं प्रयोगशलाओं के होते हुए भी यदि वैज्ञानिक विश्व-प्रहेलिका को नहीं सुलझा पाये हैं, तो उस युग में जबकि इन साधनों का सर्वथा अभाव था, जैन दार्शनिकों ने विश्व की सान्तता', 'आकाश और काल की अनन्तता', 'गति-स्थिति माध्यमों (ईथरों) की वास्तविकता' विश्व का निश्चित परिमाण और आकार, पदार्थ में परिणामी-नित्यत्व धर्म, कालचक्र के प्रवर्तन के साथ प्रकृति के परिवर्तन आदि तथ्यों का विवेचनपूर्वक और असीम निश्चलता से किस प्रकार प्रतिपादन किया, यही प्रश्न जिज्ञासा-शील मनुष्य को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की छोटी तलैया से निकाल कर आत्म-प्रत्यक्ष के लहलहाते महासागर की ओर झांकने को उत्कण्ठित कर देता है। १. माउण्ट विलसन की वैधशाला में ६० इंच और माउण्ट पैलोमेर की वैधशाला में २०० इंच की दीर्घता के काच से-युक्त दूरवीक्षण यंत्र का उपयोग होता है।
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