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अध्यात्म और विज्ञान
कालचक्र और सौरमंडल से हमारा भाव और मन जुड़ा हुआ है। इनसे हम प्रभावित होते हैं। इसीलिए इन दिनों में विशेष अनुष्ठानों का विधान किया गया कि अष्टमी, चतुर्दशी को विशेष अनुष्ठन किए जायें जिससे कि मानसिक विक्षिप्तता के प्रभावों से बचा जा सके। यह एक मुख्य हेतु था। चन्द्रमा की भांति ही दूसरे ग्रहों का भी प्रभाव पड़ता है। सूर्य का भी प्रभाव होता है, मंगल का भी प्रभाव होता है और गुरु का भी प्रभाव होता है। हम इतने प्रभावों से प्रभावित हैं कि अप्रभावित अवस्था हमें प्राप्त नहीं है। इस स्थिति में मानसिक शान्ति की समस्या और जटिल बन जाती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जो व्यक्ति सामाजिक वातावरण को जैसा ग्रहण करता है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है। किन्तु कोई भी बात यदि एकांगी दृष्टिकोण से स्वीकृत होगी तो उसमें सचाई नहीं होगी। सचाई होगी तो अधूरी सचाई होगी। पूरी सचाई नहीं होगी और समस्या के समाधान तक ले जानेवाली सचाई नहीं होगी। एकांगी दृष्टिकोण से कोई भी बात पकड़ ली जाती है तो उलझन बहुत बढ़ जाती है।
व्यक्ति समाज का हिस्सा है, यह बात ठीक है। किन्तु व्यक्ति की अपनी वैयक्तिकता भी है। यदि सामाजिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता तो वैयक्तिकता को भी समाप्त नहीं किया जा सकता।
व्यक्ति की अपनी विशेषताएं होती हैं और यदि वे विशेषताएं न हों तो इन रोग के कीटाणुओं का इतना भयंकर आक्रमण हो सकता है कि कोई बच ही नहीं सकता। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी अवरोधक शक्ति होती है। हर व्यक्ति अपनी क्षमता और शक्ति के आधार पर कीटाणुओं से लड़ता है, अपनी शक्ति का उपयोग करता है।
व्यक्तिगत विशेषताओं पर भी हमें विचार करना होगा। एक ओर हम वातावरण से, परिस्थितियों से, हेतुओं से, निमित्तों से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर विचार करें तो दूसरी ओर व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर भी विचार करें। यही अध्यात्म का और इस भौतिक विज्ञान का एक केन्द्र-बिन्दु बनता है। हम व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर विचार करें। एक बहुत सुन्दर पुस्तक निकली है-Man the Unknown | उसमें वैज्ञानिक दृष्टि से इतना विश्लेषण किया गया है कि मनुष्य' अभी तक अज्ञात है। मनुष्य का थोड़ा-सा हिस्सा, उसके मस्तिष्क का पांच-सात प्रतिशत हिस्सा ही ज्ञात हुआ है। नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा अज्ञात ही है।
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