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________________ अध्यात्म और विज्ञान ४९ लगा दिया है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक सूई की नोंक पर अरबों-खरबों परमाणु समा जाते हैं । यह विज्ञान की बात है । दार्शनिक जगत् की बात तो और सूक्ष्म है। उनके अनुसार सूई की नोक पर अन्नत जीव समा सकते हैं । अनन्तकायिक वनस्पतियां इसका प्रमाण हैं । यह बहुत सूक्ष्म अन्वेषण है । वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से तथा सूक्ष्म उपकरणों के माध्यम से जो देखा गया वह यह है कि एक कण भूमि में बीस हजार कीटाणु समा जाते हैं। बहुत विराट् है सूक्ष्म जगत्, किन्तु इन्द्रिय-जगत के प्रति हमारे कुछ दार्शनिकों और तार्किकों की इतनी प्रगाढ़ आस्था हो गयी कि वे इन्द्रियातीत को अवास्तविक मानने लग गए। जैन आगम के सूक्ष्म सत्य जैन आगम-साहित्य में सूक्ष्म प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं । आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में उन्हें समझने की सुविधा होती है । उदाहरणार्थ यहां कुछ एक महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की चर्चा की जा रही है १. निगोद वनस्पति के सुई की नोक टिके उतने भाग में अनन्त जीव होते हैं - यह एक धार्मिक सिद्धान्त है । यह सहज बुद्धिगम्य नहीं है, इसलिए चिरकाल तक संदेह का विषय बना रहा । किन्तु अब इस सूक्ष्मता में संदेह नहीं किया जा सकता। शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर के पिन की नोंक टिके उतने भाग में से दस लाख कोशिकाएं हैं। पांच फिट के मानव शरीर में छह सौ खरब कोशिकाएं हैं। यह विशाल संख्या वनस्पति-विषयक संख्या को संभव बना देती है । २. मनोविज्ञान के क्षेत्र में जिस दिन चेतन मन की सीमा को पा कर अवचेतन और अचेतन मन की अवधारणा निश्चित हुई, उस दिन चेतन जगत् की सूक्ष्मता की दिशा में एक अभिनव अभियान शुरू हो गया । ३. लेश्या या आभामंडल का सिद्धांत समझ से परे हो रहा था । प्रत्येक जीव के आस-पास एक आभामंडल होता है । भाव परिवर्तन के साथ-साथ वह परिवर्तित होता रहता है । मृत्यु के आस-पास वह क्षीण होने लगता है और मृत्यु के साथ वह समाप्त हो जाता है । अथवा इस प्रकार कहा जा सकता है कि उसके क्षीण होने पर प्राणी की मृत्यु हो जाती है । विज्ञान के क्षेत्र में आभामंडल का सिद्धांत प्रतिष्ठित हो चुका है । किर्लियन दंपति के इस विषय में किए गए प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।' उन्होंने पदार्थ और प्राणी दोनों को आभामंडल के फोटो लिये। उन दोनों में एक प्रकाशमय ढांचा बना हुआ था । सिक्के का आभामंडल नियत था, जबकि प्राणी का आभामंडल परिवर्तनशील था । १. देखें पृ० ५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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