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दर्शन और विज्ञान प्रथम दो--मतिज्ञान व श्रुतज्ञान तो ऐन्द्रिय हैं और शेष तीन-अवधिज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान और केवलज्ञान अतीन्द्रिय हैं। प्रथम दो आत्मा के अतिरिक्त बाह्य साधनों की अपेक्षा रखते हैं (चाहे वे साधन इन्द्रिय अथवा मन के रूप में हों या भौतिक उपकरणों के रूप में हो), जबकि शेष तीन में बाह्य भौतिक साधनों की किंचित् भी अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिए अवधि, मन:पर्यव और केवल-ये तीन प्रत्यक्ष माने जाते हैं और मति-श्रुत परोक्ष माने जाने है।
दूसरी ओर जैन तत्त्व-मीमांसा का यह स्पष्ट निरूपण है कि जीवास्तिकाय (आत्मा) और पुद्गलास्तिकाय दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं और वस्तु-सापेक्ष वास्तविकताएं हैं। चैतन्य आत्मा का असाधारण गुण है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण- ये पुद्गल के अनिवार्य गुण हैं और वस्तु-सापेक्ष हैं। पुद्गल तत्त्व की परिभाषा ही इस प्रकार की गई है कि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण (रंग), जिसमें हों, वह पुद्गल है।'
एडिंग्टन के दर्शन और जैन दर्शन में कितना साम्य-वैषम्य है, यह अब सरलतया स्पष्ट हो सकता है। एडिंग्टन ने अपने दर्शन का आधार ज्ञान मैमासिक विश्लेषण को बना कर यह प्रतिपादित किया है कि चैतन्य एक वस्तुसापेक्ष वास्तविकता है, जो हमारे सारे ज्ञान, अनुभूति, विचार, स्मृति आदि का स्रोत है। जैन-दर्शन भी आत्मा का अस्तित्व वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है और उसको ही सभी चेतनामय प्रवृत्तियों का स्रोत मानता है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व के विषय में तथा उसके गुण के विषय में दोनों दर्शनों का सदृश प्रतिपादन रहा है।
बाह्य विश्व अथवा भौतिक जगत् के 'अस्तित्व' का जहां तक प्रश्न है दोनों ही दर्शन उसको स्वीकार करते हैं, किन्तु उसके स्वरूप के विषय में दोनों में मौलिक मतभेद प्रतीत होता है। एडिंग्टन यह मानते है कि भौतिक पदार्थ के वर्ण, रस आदि सभी गुण वस्तु-निष्ठ न होकर केवल चैतन्य की प्रवृति के निमित्त ही उसमें आरोपित होते हैं; जबकि जैन दर्शन के अनुसार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का अस्तित्व चैतन्यजन्य नहीं, अपितु पुद्गल में स्वाभाविक रूप से ही होता है। पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श होते हैं।
१. स्पर्शसगन्धवर्णवान् पुद्गलः ।
-श्री जैन सिद्धांत दीपिका, १-११ । २. एकरसगन्धवर्णों द्विस्पर्श: कार्यलिङ्गच ।
-पञ्चास्किायसार।
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