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जैन दर्शन और विज्ञान परमाणु का अस्तित्व जिस प्रकार वस्तु सापेक्ष है- ज्ञाता सापेक्ष नहीं, उसी प्रकार स्पर्शादि गुणचतुष्टय भी परमाणु के वस्तु-सापेक्ष गुण है और ज्ञाता की अपेक्षा बिना ये सदा परमाणु में रहते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि स्पर्शादि चतुष्टय की विविधता का अस्तित्व भी ज्ञाता-सापेक्ष न होकर वस्तु सापेक्ष ही है। विश्व में अस्तित्ववान् अनन्त परमाणुओं में अनन्त प्रकार से इन गुणों का वैविध्य और तारतम्य होता है। उदाहरणार्थ हम वर्ण को लें-काला, नीला, रक्त, पीत और श्वेत पांच प्रकार के वर्ण मौलिक माने जाते हैं। प्रत्येक परमाणु में इन पांच वर्णो में से कोई भी एक वर्ण अवश्य होता है। इसमें भी फिर समान वर्ण वाले परमाणुओं में उस वर्ण की मात्रा का तारतम्य होता है। कुछ एक परमाणु केवल एक गुण (यूनिट) वाले होते है; कुछ एक परमाणु दो गुण वाले, कुछ अनन्त गुण वाले भी होते है। इस प्रकार से अन्य वर्गों की तथा रस आदि गुणों की भी विविधता और तारतम्य वस्तु-सापेक्ष रूप में परमाणुओं में होता है। इस प्रकार वर्णदि चतुष्टय की विविधता का अस्तित्व न तो चेतना द्वारा आरोपित होता है। और न चेतना पर आधारित ही है। यह जैन परमाणुवाद की तात्त्विक रूपरेखा है। इसके अनुसार सेव' जिन परमाणुओं का बना हुआ है, उनमें से प्रत्येक परमाणु में कोई न कोई 'रस' तो होता ही है और इन सब परमाणुओं के समूह रूप सेव का रस भी वास्तविक अस्तित्व रखता है।
आधुनिक विज्ञान भौतिक पदार्थ की अन्तिम इकाई तक पहुंच नहीं पाया है, फिर भी अणु-स्थित कण-'ऋणाणु' 'धनाणु' आदि व्यावहारिक रूप में भौतिक पदार्थो की इकाइयों के रूप में माने जाने हैं। एडिंग्टन इन कणों के वास्तविक अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं, पर इनमें वर्णादि गुणों का वास्तविक अस्तित्व है, ऐसा वे नहीं मानते। उनके यह बात समझ में नहीं आती कि ज्ञाता की अपेक्षा के बिना भी स्वयं परमाणु और पदार्थ वर्णादि को किस प्रकार धारण कर सकते है। किन्तु यह केवल उनकी रूढ़ आदर्शवादी विचारधारा के कारण से है, ऐसा लगता है।
वर्णादि की विविधता प्रत्यक्षतया हमारी अनुभूति में आती है और एडिंग्टन भी इसका निषेध नहीं कर सकते। अब, यदि यह विविधता वस्तुनिष्ठ न होती, तो एक ही चैतन्य को विभिन्न पदार्थ, विविध वर्णादि वाले किस प्रकार अनुभूत होते? साथ ही यदि वर्णादि को बुनने वाला चैतन्य ही होता और पदार्थ अपने आपमें निर्गुण ही होता, तो फिर एक ही पदार्थ नाना ज्ञाताओं के द्वारा समान ही वर्णादि वाला क्यों १. देखें, दी न्यू पाथवेल इन साईन्स, पृ० ८८ ।
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