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विश्व का परिमाण और आयु
२८३ प्रक्रियाएं एक ही दिशा में हो रही हैं, यह मान्यता गलत हो सकती है। डॉ. टोलमेन ने साथ में यह परिकल्पना भी की है कि यह सम्भव है कि विश्व में कहीं नई जड-राशि उत्पन्न होरही हो। इस परिकल्पना के आधार पर उन्होंने यह प्रतिपादन किया है कि वर्तमान में जो विश्व का विस्तार हो रहा है, कुछ काल पश्चात् विश्व पुन: सिकुड़ना आरम्भ हो जाएगा और इस प्रकार विस्तार-संकोच के चक्र शाश्वत काल के लिए चलते रहेंगे।
दूसरे प्रकार का विश्व अतिपरवलीय है; अर्थात् आज से अनन्त काल पूर्व विश्व अत्यन्त विस्तृतावस्था में था, जब कि उसमें रहे हुए जड़ द्रव्यों की घनता बहुत ही कम थी। उसके बाद वह सिकुड़ना शुरू हुआ और तब तक सिकुड़ता रहा, जब तक उत्कृष्ट घनता को प्राप्त न हुआ। उसके बाद वह पुनः विस्तार की ओर अग्रसर होना आरम्भ हुआ है और अनन्त काल तक इस तरह विस्तृत होता रहेगा।
चक्रीय विश्व-स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व के सिद्धांत का प्रतिपादन दूसरे आधार पर भी स्वतंत्रतया किया जा सकता है। इसका आधार है-आइन्स्टीन का 'द्रव्य और शक्ति की तुल्यता का सिद्धान्त' (प्रिंसिपल ऑफ इक्वीवेलेन्स ऑफ मास एण्ड एनर्जी)। उष्णता-गति-विज्ञान के दूसरे नियम के अनुसार विश्व की जड़-राशि का विनाश हो रहा है, इस सिद्धांत को कुछ वैज्ञानिक स्वीकार नहीं करते। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व एक ओर जहां विनाशोन्मुख हो रहा है, वहां यह सम्भावना भी हो सकती है कि किसी प्रकार से और कहीं-न-कहीं, उसका पुन: निर्माण भी हो रहा होगा। आइन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की तुल्यता के सिद्धान्त' के आधार पर यह परिकल्पना की जा सकती है किस जो शक्ति विकिरण रिडिएशन) के रूप में आकाश में लीन हो रही है, वही पुन: इस सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य-रूप में परिणत होकर, क्रमश: ऋणाणु, अणु और लघुतम द्रव्य-कण का रूप धारण करती हैं। ये स्वयं एक दूसरे के साथ जुड़कर स्थूल पदार्थ का रूप धारण करते हैं। ये स्थूल पदार्थ गुरुत्व-प्रभाव के कारण एक-दूसरे में मिलकर निहारिका, तारापुज आदि आकाशीय पिण्डों का निर्माण करते हैं, जो अन्त में बड़ी-बड़ी आकाशगगांओं के रूप में विश्व में फिर से अपना अस्तित्व धारण करते हैं। इस क्रम से विश्व का जीवन-क्रम शाश्वत काल के लिए चलता हो।' इन संभावनाओं को पुष्ट करने वाले कुछ प्रयोग भी प्रयोगशालाओं में किए गए हैं। इन प्रयोगों ने बताया है कि जब गामा किरण के रूप में प्रकाशाणु किसी भी द्रव्यकणों के साथ टकराते हैं, तब ऋणाणु और धनाणु (पाजिट्रॉन) की उत्पत्ति होती है। थोड़े काल पूर्व ही खगोलवेत्ताओं ने यह निश्चित किया है कि आकाश-स्थित हलके पदार्थों के अणु एक-दूसरे के साथ मिलकर रज और वायु के सूक्ष्म कणों के रूप में परिणत होते रहते हैं। इससे आगे हावर्ड के डॉ. फ्रेड
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