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जैन दर्शन और विज्ञान एल. हीपल (Fred L. Whipple) ने अपनी सुप्रसिद्ध 'रजोमेघ-कल्पना' (डस्ट-क्लाउड हाइपोथिसिस) में यह बताया है कि आकाश-स्थित सूक्ष्म रजकण, ताराओं के प्रकाश के दबाव से एक-दूसरे के निकट आते हैं और एकीभूत हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप कणों का एक समूह बनता है, जो कि बड़ा होने पर एक मेघ का स्वरूप धारण करता है। यह छोटा-सा रजोमेघ क्रमश: बढ़ता हुआ अन्यान्य भौतिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप अन्तत: प्रकाशमान ताराओं का स्वरूप धारण करता है। अपने सारे सौरमण्डल की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई थी, ऐसा हीपल का मानना
इस प्रकार विकिरण से क्रमश: समग्र विश्व में सभी सूक्ष्म-स्थूल पदार्थों की उत्पत्ति सिद्ध होने पर "हम एक स्वयं संचालित कम्पनशील विश्व की कल्पना पर पहुंचते हैं, जिस विश्व में अनन्त काल तक निर्माण और ध्वंस, प्रकाश और तम, संघटन
और विघटन, ताप और शीत, विस्तार और संकोच आदि के चक्र स्वत: चलते रहते हैं।
उष्णता-गति-विज्ञान के दूसरे नियम में और उक्त प्रकार के चक्रवत् चलाने वाले विश्व में परस्पर विरोध-सा दिखाई देता है। इस विषय में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स लिखते हैं, “यह कल्पना शक्य है कि विशेष प्रकार की आकाशीय स्थितियों में जिनका हमें ज्ञान नहीं है, उष्णतागति-विज्ञान का दूसरा नियम कार्यक्षम न हो। ...चक्रीय विश्व का सिद्धांत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त और मान्य है, इस विषय में कोई सन्देह नहीं है।"२
इस प्रकार स्वयं संचालित कम्पनशील विश्व' का सिद्धांत विश्व का अनादि और अनन्त प्रमाणित करता है। वस्तुत: तो डा. गेमो का सिद्धांत भी अतिपरवलीय विश्व की कल्पना को स्वीकार करता है। इसलिए डा. गेमो ने भी वास्तविक दृष्टि से 'अनादि विश्व' को ही स्वीकार किया है। स्वयं डा. गेमो के शब्दों में देखें, तो “इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारा यह विश्व शाश्वत काल से अस्तित्व में था और अब से करीब ५० करोड़ वर्ष पूर्व तक समान रूप से सिकुड़ रहा था। आज से ५० करोड़ वर्ष पूर्व तक वह उस स्थिति को प्राप्त हुआ, जहां पर कि संकोच की उत्कृष्ट स्थिति आ जाने से विश्व की सभी जड़-राशि केवल अणु के सूक्ष्म केन्द्र के अन्दर समाहित हो गई। ...जिसके बाद में वह पुनः विस्तृत होना शुरू हुआ है, जो अनन्त काल तक विस्तृत होता रहेगा।" १. दी यूनिवर्स एण्ड डा० आइन्सटीन, प० ११३ । २. मिस्टीर्यस यूनिवर्स, पृ० १३३ । ३. दी न्यु एस्ट्रोनोमी, पृ० २३ ।
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