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जैन दर्शन और परामनोविज्ञान दोनों मतों के प्रतिपादकों के पारस्परिक वाद-विवाद की विस्तृत चर्चाएं उपलब्ध होती हैं। ये चर्चाएं तर्क, अनुमान आदि प्रमाण के आधार पर की गई हैं। दोनों पक्षों की ओर से अपने-अपने मत को स्थापित कर विपक्ष को खण्डित करने की चेष्टा की गई
है।
पुनर्जन्म की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों की प्राय: दो प्रधान शंकाएं सामने आती हैं :
१. यदि हमारा पूर्वभव होता, तो हम उसकी कुछ-न-कुछ स्मृतियां होतीं।
२. यदि दूसरा जन्म होता, तो आत्मा की गति एवं आगति हम क्यों नहीं देख पाते?
पहली शंका का हम बाल्य-जीवन की तुलना से ही समाधान कर सकते हैं। बचपन की घटनावलियां हमें स्मरण नहीं आतीं, तो क्या इसका अर्थ होगा कि हमारी शैशव-अवस्था हुई नहीं थी? एक-दो वर्ष के नव-शैशव की घटनाएं स्मरण नहीं होतीं, तो भी अपने बचपन में किसी को संदेह नहीं होता। वर्तमान जीवन की यह बात है, तब फिर पूर्वजन्म को हम इस युक्ति से कैसे हवा में उड़ा सकते हैं? पूर्वजन्म की भी स्मृति हो सकती है, यदि उतनी शक्ति जाग्रत हो जाए। जिसे 'जाति-स्मृति ज्ञान' (पूर्वजन्म-स्मरण) हो जाता है वह अनेक जन्मों की घटनाओं का साक्षात्कार कर सकता है।
दूसरी शंका एक प्रकार से नहीं के समान है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता है। उसके दो कारण है :
१. वह अमूर्त है; इसलिए दृष्टिगोचर नहीं होता।
२. वह सूक्ष्म है; इसलिए शरीर में प्रवेश करता हुआ या निकलता हुआ उपलब्ध नहीं होता।
नहीं दीखने मात्र से किसी वस्तु का अभाव नहीं होता। सूर्य के प्रकाश में नक्षत्र-गुण नहीं देखा जाता। इससे इसका अभाव थोड़े ही माना जा सकता है? अंधकार में कुछ नहीं दीखता, क्या यह मान लिया जाए कि यहां कुछ भी नहीं है? ज्ञान-शक्ति की एकदेशीयता से किसी भी सत्-पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार न करना उचित नहीं होता।
अब हमें पुनर्जन्म की सामान्य स्थिति पर भी कुछ दृष्टिपात कर लेना चाहिए। दुनिया में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो अत्यन्त असत् से सत् बन जाए-जिसका कोई भी अस्त्तिव नहीं, वह अपना अस्तित्व बना ले । अभाव से भाव एवं भाव से अभाव नहीं होता, तब फिर जन्म और मृत्यु, नाश और उत्पाद, यह क्या है? परिवर्तन । प्रत्येक पदार्थ में परिवर्तन होता है।
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