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________________ ३. जैन दर्शन और परामनोविज्ञान (१) आत्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद जैन दर्शन का दृष्टिकोण जैन दर्शन आत्मवादी कर्मवादी एवं पुनर्जन्मवादी दर्शन है। जैन दर्शन के अनुसार संसार का प्रत्येक प्राणी अपने आप में एक आत्मा है और कर्मों से बद्ध है, आवृत है। कर्म पुनर्जन्म का मूल कारण है। तत्त्व-मीमांसा की दृष्टि से आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है, स्वतन्त्र है, वास्तविक है और एक द्रव्य या वस्तु के रूप में है। आत्मा या जीव अस्तिकाय है। प्रत्येक आत्मा असंख्य “प्रदेश" का पिण्ड है। प्रदेश यानी अविभाज्य अंश- जिसके दो विभाग न हो सके। जैसे पुद्गल द्रव्य परमाणुओं के संघात से बनता है, वैसे जीव असंख्य प्रदेशों के संघात से नहीं बनता; किन्तु आत्मा के असंख्य प्रदेश सदा संघात रूप में रहते हैं, कभी पृथक नहीं होते। जितने स्थान का अवगाहन एक परमाणु करता है, उतने ही स्थान का अवगाहन एक प्रदेश करता है। आत्मा सावयवी या सप्रदेशी होते हुए भी ये आत्मा से कभी अलग नहीं होते, कभी टूटते नहीं। प्रत्येक आत्म-प्रदेश के साथ कर्म-पुद्गलों का संयोग होता है और कर्म के द्वारा उत्पन्न प्रभाव से आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करती रहती है। कर्म अपने आप में जड़ है, फिर भी आत्मा के साथ बद्ध होने से उनमें आत्मा को प्रभावित करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। कर्म को हम "चैतसिक-भौतिक बल" (Psycho-physical force) के रूप में मान सकते हैं। यही बल आत्मा को पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य करता है। अनादिकाल से प्रत्येक जीव (आत्मा) जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से गुजरता हुआ अपना अस्तित्व बनाए रखता है। यही जैन दर्शन का आत्मवाद और पुनर्जन्मवाद का सिद्धांत है। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद आस्तिक या अध्यात्मवादी एवं नास्तिक या भौतिकवादी दर्शन पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत करते हैं। सभी अस्तित्ववादी या आस्तिक दर्शन आत्मा को चैतन्यशील, जड़ पदार्थ से सर्वथा स्वतंत्र एवं अनश्वर अर्थात् मृत्यु के पश्चात् भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने वाला, स्वीकार करते हैं, जबकि भौतिकवादी या नास्तिक दर्शन आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते तथा मृत्यु के पश्चात् उसके अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। न्यायशास्त्र एक दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों में इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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