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________________ ८४ जैन दर्शन और विज्ञान परिवर्तन से पदार्थ एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है, किन्तु न तो यह सर्वथा नष्ट होता है और न सर्वथा उत्पन्न भी। दूसरे-दूसरे पदार्थों में भी परिवर्तन होता है, वह हमारे सामने है। प्राणियों में भी परिवर्तन होता है। वे जन्मते हैं, मरते हैं। जन्म का अर्थ अत्यन्त नयी वस्तु की उत्पत्ति नहीं और मृत्यु से जीव का उत्यन्त उच्छेद नहीं होता। केवल वैसा ही परिर्वतन है, जैसे यात्री एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में चले जाते हैं। यह एक ध्रुव सत्य है कि सत्ता से असत्ता एवं असत्ता से सत्ता कभी नहीं होती। परिवर्तन को जोड़ने वाली कड़ी आत्मा है। वह अन्वयी है। पूर्वजन्म और उत्तर-जन्म दोनों उसकी अवस्थाएं हैं। वह दोनों में एकरूप रहती है। अतएव अतीत और भविष्य की घटनावलियो की श्रृंखला जुड़ती है। शरीरशास्त्र के अनुसार सात वर्ष के बाद शरीर के पूर्व परमाणु च्युत हो जाते हैं, सब अवयव नये बन जाते हैं। इसका सर्वांगीण परिवर्तन में आत्मा का लोप नहीं होता। तब फिर मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व कैसे मिट जाएगा? जाति-स्मृति ज्ञान जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-ये दोनों इन्द्रिय-ज्ञान के भेद हैं। जाति-स्मृति का अर्थ है-पूर्वजन्म की स्मृति। पूर्वजन्म की स्मृति (जाति-स्मृति) 'मति ज्ञान' का ही एक विशेष प्रकार है। इससे पिछले अनेक समनस्क जीवनों की घटनावालियां जानी जा सकती हैं। पूर्वजन्म में घटित घटना के समान घटना घटने पर वह पूर्वपरिचित-सी लगती है। ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होने पर पूर्वजन्म की स्मृति उत्पन्न होती है। सब समनस्क जीवों को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती, इसकी कारण-मीमांसा करते हुए आचार्य ने लिखा है “जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरइ न अप्पणो।।" -व्यक्ति 'मृत्यु' और 'जन्म' की वेदना से सम्मूढ हो जाता है; इसलिए साधारणतया उसे जाति की स्मृति नहीं होती। एक ही जीवन में दुःख-व्यग्रदता (सम्मोह-दशा) में स्मृति-भ्रंश हो जाता है, तब वैसी स्थिति में पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त हो जाए, उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। पूर्वजन्म की स्मृति-साधन मस्तिष्क आदि नहीं होते, फिर भी आत्मा के दृढ-संस्कार और ज्ञान-बल से उसकी स्मृति हो आती है। इसलिए ज्ञान दो प्रकार का बतलाया है-इस जन्म का ज्ञान और अगले जन्म का ज्ञान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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