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जैन दर्शन और विज्ञान का प्रयत्न किया गया है जिनके आधार पर जगत् की प्रक्रियाओं की व्याख्या की जा सके। आधुनिक विज्ञान के 'परमाणुवाद'' द्वारा समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं को समझने का प्रयत्न काफी सफल हुआ है। जीव-विज्ञान के रहस्यों को भी भौतिक विज्ञान एवं रासायनिक विज्ञान के मौलिक नियमों के आधार पर उद्घाटित करने में वैज्ञानिक काफी आगे बढ़े हैं। अस्तु, नियमवाद के आधुनिक विज्ञान का मूल स्तंभ माना जा सकता है।
(२) ईश्वरवाद : कर्मवाद अज्ञात रहस्यों को समझने के लिए दार्शनिकों ने अनेक सिद्धांत स्थापित किए। कर्म के विषय में भी अनेक सिद्धांत स्थापित हैं। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी है। कुछ कर्मवाद को मानते हैं पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। वे केवल कर्मवाद को नहीं मानते। सष्टि है परिवर्तनात्मक
___ जैन दर्शनक कर्मवादी दर्शन है। ईश्वर का सिद्धांत मान्य नहीं है। ईश्वर के लिए तीन कार्यों की कल्पना की गई- (१) सृष्टि का कर्ता होना चाहिए, (२) नियंता होना चाहिए, (३) अच्छे और बुरे कार्य का फल भुगताने वाला होना चाहिए। सष्टि के कर्ता, सृष्टि के नियता और कर्म-फल को भोग देने वाला, नियोजन करने वाले ईश्वर की कल्पना के पीछे ये तीन मुख्य तत्त्व काम करते है। जैन दर्शन ने जगत् को अनादि माना, इसलिए उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। सृष्टि का नियन्ता कोई नहीं
___जैन दर्शन जगत् को भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है। जगत् अनादि, है, प्रत्येक पदार्थ अनादि है। प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है. जीव और पुद्गल के संयोग से वैभाविक परिवर्तन होती है। वह सृष्टि है। सृष्टि जीव और पुद्गल के द्वारा संपादित होती है। जीव और पुद्गल के अतिरिक्त किसी तीसरी सत्ता को मानने की कोई आवश्यकता नहीं ।
दूसरा प्रश्न है नियमन का। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता कोई नहीं है। अगर कोई नियंता है, सर्वशक्तिमान है तो सृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था वाली सृष्टि के लिए अगर ईश्वर को नियन्ता माने और साथ-साथ में सर्वशक्तिमान भी मानें तो दोनों में अन्तर्विरोध जैसा उपस्थित हो जाता है। यदि सृष्टि का कर्ता सर्वशक्तिमान है तो व्यवस्था इतनी त्रुटिपूर्ण नहीं होगी। यदि १. इसी पुस्तक में नवें प्रकरण में इसकी विस्तृत चर्चा की जाएगी।
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