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जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा
२१९ वह सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सारी सृष्टि का अकेला नियमन नहीं कर सकता। यह नियन्ता वाली बात संगत प्रतीत नहीं होती। सृष्टि का नियमन नियम के द्वारा
जैन दर्शन ने नियन्ता की आवश्यकता अनुभव नहीं की। उसका सिद्धांत है नियम । सृष्टि का नियम के द्वारा होता है, नियंता के द्वारा नहीं होता। हमारे जगत् के कुछ सार्वभौम नियम हैं, जो अकृत्रिम हैं, किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। जीव-पुद्गल के स्वयंभू नियम हैं और वे नियम अपना काम करते हैं।
एक जीव को मोक्ष जाना है तो वह अपने नियम से जाएगा। एक पुद्गल को, परमाणु को बदलना है तो वह अपने नियम से बदलेगा। एक परमाणु का एक गुणा काला है और उसे अनन्त गुना काला होना है तो वह अपने नियम से होगा। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का जितना परिवर्तन है वह सारा अपने नियम से होगा। निर्धारित समय से उसे निश्चित रूप से बदलना ही पड़ेगा। यह प्राकृतिक नियम है, सार्वभौम नियम है और इस नियम से सारा नियमन हो रहा है। यह सारी
ओटोमेटिक व्यवस्था है, स्वयंकृत व्यवस्था है। बाहर के कृत या आरोपित व्यवस्था नहीं है, इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कर्तृत्व : भोक्तृत्व
तीसरा प्रश्न है-कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता। कोई न्यायाधीश होता है, दंडनायक होता है, जो उसे दंडित करता है, फल देता है, वैसे ही सारे जगत को अच्छे और बुरे कर्म का फल देने वाला भी कोई होना चाहिए। इस आधार पर कर्मफल -दाता की आवश्यकता कुछ दार्शनिकों ने महसूस की। किंतु जैन दर्शन ने इस आवश्यकता का अनुभव किया। जैन दर्शन का मंतव्य है-कर्म करने वाला और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे बाहर कहीं से लाने की आवश्यकता नहीं है। अपना स्वयं का कर्तव्य और अपना स्वयं का भोक्तृत्व-दोनों उसमें समाहित हैं इन तीन स्थितियों के आधार पर जैन दर्शन को ईश्वर की आवश्यकता दार्शनिक दृष्टि से महसूस नहीं हुई। प्रयोजनवादी दृष्टि
एक संदर्भ है प्रयोजन का। प्रयोजनवादी दृष्टि से भी कुछ प्रश्न उभरते हैं-ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया? वह क्यों जगत के प्रपंच में आया और वह क्यों सबकी व्यवस्था और नियमन करता है। वह अच्छा करने वाले को अच्छे फल देता है और बुरा फल करने वाले को बुरा फल देता है। वह ऐसा क्यों करता है। उसका
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