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________________ २२० जैन दर्शन और विज्ञान प्रयोजन क्या है? यह बड़ा जटिल प्रश्न है ईश्वरवादी के सामने । प्रयोजनवादी तर्क जब सामने आता है तो उसका संतोषजनक समाधान नहीं मिलता। यदि करुणा प्रयोजन है तो प्रश्न होगा-यह प्रयोजन कब पैदा हुआ? यदि कहा जाए-जिस दिन ईश्वर जन्मा, उसी दिन प्रयोजन पैदा हो गया तो इसका अर्थ होगा-ईश्वर और जगत् का जन्म एक साथ हुआ। यदि ईश्वर पहले था और प्रयोजन कभी बाद में हुआ तो प्रश्न आएगा-प्रयोजन बाद में क्यों पैदा हुआ पहले क्यों नहीं हुआ? उसका प्रयोजन आखिर क्या था? उत्तर दिया गया-करुणा थी प्रयोजन । ईश्वर के मन में करुणा जागी और उसने सृष्टि का निर्माण कर दिया। एकाऽहं बहुस्याम् यह करुणावादी प्रयोजन वाली सृष्टि नहीं है। जहां इतनी क्रूरता और इतना आतंक है वहां करुणावादी दृष्टिकोण सफल नहीं होता। करुणा की बात समझ में नहीं आती। दूसरे भी जितने प्रयोजन हैं उनकी कोई संगत व्याख्या सामने नहीं आती। इन सारे दार्शनिक बिन्दुओं के आधार पर एक जैन दर्शन ने ईश्वरवाद के अस्तित्व को नकार दिया। कहा जाता है-ईश्वर को अकेला रहना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने सोचा-‘एकोऽहं बहु स्याम्' मैं बहुत हो जाऊं। इसलिए वह एक से बहुत हो गया। जिस प्रकार से ईश्वर की कल्पना है, उससे यह बात भी संगत नहीं लगती। ईश्वरवाद : धार्मिक दृष्टिकोण हमारे सामने तीन दृष्टिकोण हैं-धार्मिक दृष्टिकोण, नैतिक दृष्टिकोण और दानिक दृष्टिकोण। इन तीनों बिन्दुओं पर ईश्वरवाद की यह अवधारणा सम्यक् नहीं उभरती। ___ जब प्रगति और परिवर्तन का अधिकार मनुष्य को नहीं है तो ईश्वर का अस्तित्व उसे संकट में डालने वाला है। मनुष्य न प्रगति कर सकता और न परिवर्तन कर सकता। जैसा है वैसा ही रहे। ये दोनों जब मनुष्य के हाथ में नहीं है तो धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर का अस्तित्व उसके लिए खतरनाक बन गया। इस धारणा ने रूढ़िवाद एवं निराशावाद को जन्म दिया और इसी निराशावादी दृष्टिकोण ने मनुष्य को अकिंचित्कर बना दिया। ईश्वरवाद : नैतिक दृष्टिकोण नैतिक दृष्टि से विचार करें-यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। वही व्यक्ति कत के प्रति उत्तरदायी हो सकता है जिसका संकल्प स्वतंत्र है। व्यक्ति का संकल्प उसे अपने कृत के प्रति उत्तरदायी बनाता है। यदि कृत स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर ने जैसा कराया वैसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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