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________________ ४७ अध्यात्म और विज्ञान दुरुपयोग के बीच में कभी भी लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती। दुरुपयोग धर्म का भी हो सकता है और विज्ञान का भी हो सकता है। जो धर्मसत्ता और संपत्ति के साथ जुड़ जाता है, वह घातक बन जाता है। ठीक इसी प्रकार विज्ञान भी साम्राज्यवादी मनोवृति के साथ जुड़कर संहारक बन रहा है। संहार विज्ञान की प्रवृति नहीं है। उसका स्वरूप नहीं है। धर्म और विज्ञान की प्रकृति है-स्थूल से सूक्ष्म की दिशा में प्रस्थान-जागतिक नियमों की खोज, सामान्यीकरण, सत्य की परिक्रमा। कुछ धार्मिक नेता कहते हैं-विज्ञान के कारण जनता की धर्म के प्रति आस्था डगमगा गई है। किन्तु इसमें सचाई नहीं लगती। यदि धर्म से सत्य की खोज होती है, तो कोई दूसरी शक्ति उसके प्रति अनास्था पैदा नहीं कर सकती। उसे पदच्युत नहीं कर सकती। आइंस्टीन महान् वैज्ञानिक था। वह इतना आस्थावान था कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उतना आस्थावान नहीं हो सकता। वैज्ञानिक और आत्मा परमात्मा के प्रति आस्थावान-यह एक समस्या है। इतना बड़ा वैज्ञानिक और फिर धार्मिक! यह कैसे? यह प्रश्न हमारी ही मूढ़ता के कारण उत्पन्न हुआ है। अपनी विसंगतियों के कारण उत्पन्न हुआ है। अपनी विसंगतियों के कारण हमने ऐसे मूल्य स्थापित कर दिए, ऐसे मानदंड स्थापित कर लिए कि यदि वैज्ञानिक धार्मिक होता है तो आश्चर्य होता है और नहीं होता है तो कोई आश्चर्य नहीं होता। बल्कि आइंस्टीन ने स्वयं लिखा है - "Religion without science is blind; science without religion is lame." इस वैज्ञानिक युग ने मनुष्य जाति का बहुत उपकार किया है। आज धर्म के प्रति जितना सम्यक् दृष्टिकोण है वह ५०-१०० वर्ष पूर्व नहीं हो सकता था। आज सूक्ष्म सत्य के प्रति जितनी गहरी जिज्ञासा है, उतनी पहली नहीं थी। उसे अन्धविश्वास कहा जाता था। एक ऐसा शब्द है अन्धविश्वास कि उसकी ओट में सब कुछ छिपाया जा सकता था। किन्तु विज्ञान ने जैसे-जैसे सूक्ष्म सत्य की प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की, वैसे-वैसे अन्धविश्वास कहने का साहस टूटता गया। अब यदि कोई व्यक्ति किसी बात को अन्धविश्वास कह कर टालता है तो वह साहस ही करता है। आज विज्ञान जिन सूक्ष्म सत्यों का स्पर्श कर चुका है, दो शताब्दी पूर्व उनकी कल्पना भी असंभव था। यह कहा जा सकता है कि विज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान की सीमा के आस-पास पहुंच रहा है। प्राचीन काल में साधना द्वारा अतीन्द्रिय ज्ञान का विकास और सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार किया जाता था। आज के आदमी ने अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना भी खो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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