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जैन दर्शन और विज्ञान जड़-चेतन की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी सम्बन्धों की परीक्षा करते हुए डा. डब्ल्यु. टी. स्टेस ( W. T. Stace) इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ये संबंध अनुभयवाद को वस्तुतः द्वैतवाद बना डालते हैं। वे कहते हैं- "यदि जड़ और चेतन का अन्तर उनके तत्त्वों के संबंधों का अन्तर है, तो इसका तात्पर्य यह है कि चेतन पदार्थ के तत्त्वों में जो संबंध है, वह भौतिक पदार्थ के सम्बन्ध से बिलकुल भिन्न है, अर्थात् वह भौतिक नहीं है । यह भी निश्चित है कि यह अनुभय नहीं है, तो अवश्य ही मानसिक या चेतन होगा । अनुभय नहीं होने का मतलब है कि जड़ और चेतन; दोनों से भिन्न नहीं है, अर्थात् भौतिक या मानसिक है। यह भी मालूम है कि भौतिक नहीं है; इसलिए अवश्य ही मानसिक होगा। इसी तरह यह दिखाया जा सकता है कि भौतिक पदार्थों के तत्त्वों में विद्यमान सम्बन्ध भौतिक हैं । अतएव अनुभय तत्त्वों से चेतन पदार्थ को उत्पन्न करने वाले संबंध सिर्फ चेतन हैं और भौतिक पदार्थ को उत्पन्न करने वाले सिर्फ भौतिक । इसका मतलब है कि जड़ और चेतन की भिन्नता मौलिक या आधारिक है। किन्तु ऐसा होने से उनका वास्तविक द्वैत सिद्ध हो जाता है । इस द्वैत का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि यह द्वैत सम्बन्धों का है और सम्बन्ध ही जड़ को जड़ और चेतन को चेतन बनाने वाले हैं। “२ इस प्रकार, यद्यपि रसल ने घटनाओं को अनुभय तत्त्वों के रूप में बताया है, पर वस्तुतः तो उनके मूल में जड़ या चेतन कोई-न-कोई होता है ।
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यह तो जैन दर्शन भी मानता है कि जितने भी चेतन तत्त्व हैं और परमाणु-पुद्गल हैं, वे सभी स्वतंत्र वास्तविकताएं हैं और इस दृष्टि से विश्व के मूल तावों की संख्या तो अनन्त ही है। जहां हम इन तत्त्वों को प्रकारों में बांटते हैं, वहां हमारे सामने केवल दो भेद रह जाते हैं- जीव और पुद्गल । अस्तु, रसल का दर्शन पाश्चात्य जगत् का एक ऐसा दर्शन है, जो सम्भवत: जैन दर्शन के सबसे निकट माना जा सकता है 1
समीक्षात्मक वास्तविकतावाद और जैन दर्शन
आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में प्रो. हेनी मार्गेनौ की विचारधारा भी जैन दर्शन के साथ बहुत सादृश्य रखती है। प्रो. मार्गेनौ ने 'कन्स्ट्रक्ट्स' के सिद्धान्त का निरूपण करके यह बताया है कि ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व
१. देखें, दी फिलोसोफी ऑफ बर्ट्रेण्ड रसल, पी० ए० सिल्प द्वारा सम्पादित, पृ० ३५५-३८४ । २. दर्शन शास्त्र की रूपरेखा, पृ० १३३ ।
३. रसल ने स्वयं अपने दर्शन को द्वैतवाद कहा है; देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ३७१ ।
४. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय; ये तीन वास्तविक तत्त्व हैं, किन्तु इनकी संख्या एक-एक ही है ।
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