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________________ ३५ दर्शन और विज्ञान में कह रहा हूं, तो मेरा तात्पर्य किसी अनुभवातीत वस्तु से नहीं है। बिजली की चमक को देखना एक घटना है; मोटर के टायर को फटते सनुना अथवा सड़े अण्डे का संघना या किसी मेंढ़क के शरीर की शीतता का अनुभव करना............. आदि 'घटनाएं' हैं।''१ इन घटनाओं के सम्बन्ध परस्पर भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं, जिनके कारण कोई समूह 'जड़' कहलाता है और कोई 'चेतन।' इस प्रकार जड़ पदार्थों की घटनाओं के पारस्परिक संबंध चेतन पदार्थों की घटनाओं के संबंधो से भिन्न हैं, यद्यपि दोनों में विद्यमान घटनाओं का स्वरूप एक ही है। जैन दर्शन के द्रव्य-गुण-पर्यायवाद के साथ यदि रसल के इस 'घटना' सिद्धांत की तुलना की जाए, तो इनके बीच रहे हुए सादृश्य-वैसदृश्य का पता लग सकता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय का आश्रय है। प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्य में जो परिवर्तन होता है, उसे पर्याय कहा गया है। जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, आकाश एवं काल; सभी द्रव्यों में प्रतिक्षण यह पर्याय का क्रम चलता रहता है। जिसको रसल 'घटना' कहते हैं, वह संभवत: 'पर्याय' का द्योतक है। रसल पदार्थों को घटनाओं के समूह रूप मानते है; जैन दर्शन 'पर्याय-प्रवाह' के आधार को द्रव्य मानता है। रसल की 'घटनाएं' गत्यात्मक हैं और एक-दूसरे से संबंधित हैं, तो जैन दर्शन भी पर्यायों को सदा गतिमान और एक-दूसरे से संबंधित मानता है। घटनाएं और पर्याय दोनों हमारे अनुभव से परे नहीं हैं। रसल जहां घटनाओं के विविध सम्बन्धों से जड़ और चेतन से विभाजित करते हैं और जड़ पदार्थों की घटनाओं के पारस्परिक संबंधो को चेतन पदार्थों की घटनाओं के संबंध से भिन्न मानते हैं, वहां जैन दर्शन भी पुद्गल और जीव की पर्यायों को भिन्न-भिन्न मानता है। अन्तर केवल इतना ही है कि रसल प्रत्येक घटना को एक स्वतंत्र तत्त्व 'अनुभय' मानते हैं, जबकि जैन दर्शन पर्याय को एक स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करता। यथार्थता की दृष्टि से देखने पर रसल का यह अनुभयवाद भी अन्तत: तो द्वैतवाद में ही परिणत हो जाता है; क्योंकि जहां पारस्परिक सम्बन्धों से वे घटनाओं को दो प्रकारों में विभाजित करते हैं, वहां मौलिक तत्त्व घटनाएं न रह कर जड़ और चेतन ही बन जाते हैं। १. वही, पृ० २८७ । २. दर्शन शास्त्र की रूपरेखा, पृ० १३१ । ३. गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्। -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका पृ० १-३ । गरपरित्यागादानं पर्याय: । . -वही, पृ० १-४४ ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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